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________________ २३० मर्त्येषु निष्कर्मदर्शी भवेत् । निष्कर्मा - मोक्षः आत्मा संवरो वा यः मर्येषु अमृतत्वमिच्छति स निष्कर्माणमेव । पश्यति न तमन्तरेण किञ्चिदन्यत् पश्यति । स तच्चित्तस्तन्मनास्तल्लेश्यो भवति, शेषं पश्यन्नपि न पश्यति ।" कर्म त्रिविधम् मानसिक वाचिकं कायिकं च । आत्मनः स्वरूपमस्ति चैतन्यं तस्यानुभवः संवरः । एष संबर एवं नैष्कर्म्य साधनायाः रहस्यम् । उक्तं चामृतचन्द्रा चार्येण' J कृतकारितानुमननस्त्रि कालविषयं परिहृत्य कर्म सर्व परमं मनोवचनकार्यः । कमवलम्बे ॥ मोहा हमकार्ष समस्तमपि कर्म तत्प्रतिक्रम्य । आत्मनि चैतन्यात्मनि निष्कर्मणि नित्यमात्मना वर्ते ॥ मोहविलासविजृम्भितमिदमुदयत्कर्म सकलमालोच्य । आत्मनि चैतन्यात्मनि निष्कर्मणि नित्यमात्मना वर्ते ॥ 13 माध्यम् ५१ कर्माणि फलवन्ति भवन्ति, अवन्ध्यं अवश्यं भोक्तव्यमिति यावत् । यथा उत्तराध्ययने'कडाण कम्माण न मोक्ख अस्थि अथवा सुचीर्णानां कर्मणां शुभ फलं दुष्चीर्णानां कर्मणामशुभ फलं भवति तेन वेदविद् पुरुषः ततो निर्वाति-विरमति । वेद:शास्त्रं, तद् वेत्तीति वेदविद् । Jain Education International ५१. कण सफल ब त पिज्जा बेयवी । सं०-कर्मणां सफलत्वं दृष्ट्वा ततः निर्याति वेदविद् । कर्म अपना फल देते हैं, यह देखकर ज्ञानी मनुष्य उनके संचय से निवृत्त हो जाता है । १. जिसकी इन्द्रियों का प्रवाह नश्वर विषयों की ओर होता है, वह अमृत को प्राप्त नहीं हो सकता । उसकी प्राप्ति के लिए इन्द्रिय-प्रवाह को मोड़ना आवश्यक होता है। जिसकी सारी इन्द्रियां अमृत के दर्शन में लग जाती हैं, वह स्वयं अमृतमय बन जाता है। निष्कर्म के पांच अर्थ किए जा सकते हैं -- शाश्वत, अमृत, मोक्ष, संवर और आत्मा । कर्म को देखने वाला निष्कर्म को प्राप्त होता है । निष्कर्म-दर्शन योग-साधना का बहुत बड़ा सूत्र है । निष्कर्म का दर्शन चित्त की सारी वृत्तियों को एकाग्र कर करना चाहिए। उस समय केवल आत्मा या आत्मोप आचारांग भाष्यम् । प्रवृत्ति को रोक कर मनुष्य इस मरण-धर्मा जगत् में निष्कर्मदर्शी (मोक्षदर्शी) बने निष्कर्मा के तीन अर्थ है मोक्ष, आत्मा अथवा संवर। जो मरण-धर्मा जगत् में अमृतत्व की इच्छा करता है वह निष्कर्मा- - मोक्ष अथवा आत्मा को ही देखता है, उसके अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं देखता । वह उसी में चित्त, मन और लेश्याअध्यवसाय को नियोजित कर देता है, इसलिए अन्य सब कुछ देखता हुआ भी वह नहीं देखता । प्रवृत्ति तीन प्रकार की होती है मानसिक, वाचिक और कायिक आत्मा का स्वरूप है -चैतन्य । उसका अनुभव करना संवर है यह संवर ही निष्कर्म की साधना का रहस्य है। आचार्य अमृतचंद्र ने कहा है 'मैं मानसिक, वाचिक और कायिक कृत, कारित और अनुमति रूप सारी त्रैकालिक प्रवृत्तियों का परिहार कर परम क का अवलम्बन लेता हूं ।' 'मैंने मोह के वशीभूत होकर सारी प्रवृत्तियां की हैं, उनका प्रतिक्रमण कर अब मैं सदा चैतन्य स्वभाव वाली निष्कर्म आत्मा में आत्मा के द्वारा रह रहा हूं ।' "मोह से विवृति उदीयमान सारे कर्मों की आलोचना कर अब मैं सदा चैतन्य स्वभाव वाली निष्कर्म आत्मा में आत्मा के द्वारा रह रहा हूं ।' कर्म फलवान् होते हैं । वे अवन्ध्य होते हैं। उन्हें अवश्य भोगना होता है । उत्तराध्ययन में कहा है-किए हुए कर्मों का फल भोगे बिना छुटकारा नहीं होता।' अथवा अच्छे आचरण से अर्जित कर्मों का फल शुभ होता है, और बुरे आचरण से अर्जित कमों का फल अशुभ होता है, इसलिए ज्ञानी पुरुष कमों से विरत होता है। वेद का अर्थ है - शास्त्र । जो वेद को जानता है वह वेदविद् अर्थात् शास्त्रज्ञ होता है । लब्धि के साधन को ही देखना चाहिए। अन्य किसी वस्तु पर मन नहीं जाना चाहिए। २. (क) मा अमृतचन्द्राचार्यकृत आरयालिटीका, श्लोक २२५-२२७ ॥ (ख) तुलना- भगवद्गीता ३।४; १८।४९ : 'न कर्मणामनारम्भापुरुषो न च संन्यसनादेव सिद्धि समधिगच्छति ॥' 'असक्त बुद्धिः सर्वत्र जितात्मा विगतस्पृहः । सिद्धि परमा सभ्यानाधिति ।' ३. उत्तरज्शयणाणि ४।३ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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