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________________ २१२ दृष्टम् केवलदर्शनेन प्रत्यक्षीकृतम् । श्रुतम् - केवलदर्शिनः सकाशाद् निशान्तम् । मतम् - सुचिन्तितम् । विज्ञातम् - विवेकविषयीकृतम् ।' भाष्यम् १० - यथा शकुनयः समागताः रात्रौ पादपे वसन्ति, सति प्रभाते पुनः प्रव्रजन्ति, एवं मनुष्या नानाजातिभ्यः समागच्छन्ति किञ्चित् कालं सह वसन्ति सति आयुषि पूर्णे पुनः नानाविधासु जातिषु प्रव्रजन्ति, पुनः पुनर्जात प्रकल्पयन्ति - विभिन्नासु एकेन्द्रियादि जातिषु जन्ममरणचक्रमनुभवन्ति । १०. समेमाणा पलेमाणा, पुणो-पुणो जाति पकपैति । सं० - समायन्तः पर्यायन्तः पुनः पुनः जातिं प्रकल्पयन्ति । हिंसा में जाने वाले और लीन रहने वाले मनुष्य बार-बार जन्म लेते हैं । 1 माष्यम् ११ – एवं प्रमादकृतान् दोषान् अवेक्ष्य प्राप्तप्रज्ञः वीरः पुरुषः अहोरात्रम् अविश्रामं यतमानो भवेत् । विषय कषायादिप्रमत्तान् अहिंसा धर्मतः बहिर्दृष्ट्वा सदा अप्रमत्तः पराक्रमेत । यत्र प्रमादस्तत्र हिंसा, यत्र अप्रमादस्तत्र अहिंसा इति फलश्रुतिः । १. भगवान् महावीर ने प्रत्येक आत्मा में स्वतंत्र चैतन्य की क्षमता प्रतिपादित की। इस सिद्धांत के आधार पर उन्होंने कहा- तुम स्वयं सत्य की खोज करो। उन्होंने नहीं कहा कि 'मैं कहता हूं, इसलिए अहिंसाधर्म को स्वीकार करो।' उन्होंने कहा 'अहिंसा-धर्म के बारे में मैं जो कह रहा हूं, वह प्रत्यक्षज्ञानी के द्वारा दृष्ट है, आचार्यों से श्रुत है, मनन द्वारा मत और चिन्तन द्वारा विज्ञात है।' आचारांग माध्यम् दृष्ट का अर्थ है केवलदर्शन (प्रत्यक्ष ज्ञान) से साक्षात् किया हुआ । किसी प्रत्यक्षज्ञानी का दर्शन (पुष्य-सत्य) भो अवग मनन और विज्ञान के द्वारा ही स्वीकृत होता है। इसमें श्रद्धा का आरोपण नहीं, यह ज्ञान के विकास का उपक्रम है। Jain Education International हुआ । ११. अहो य राओ व जयमाणे, वीरे सया आगयपण्णाणे पमले बहिया पास, अध्यमले सया परक्कमेज्जासि । 1 ति बेमि । सं० – अहनि च रात्रौ च यतमानः, वीरः सदा आगतप्रज्ञानः । प्रमत्तान् बहिदुष्ट्वा अप्रमत्तः सदा पराक्रमेत । -इति ब्रवीमि । दिन-रात यत्न करने वाला और सदा लब्धप्रज्ञ वीर साधक देखता है कि जो प्रमत्त हैं, वे धर्म से बाहर हैं। इसलिए वह अप्रमत्त होकर सदा पराक्रम करे । ऐसा मैं कहता है। त का अर्थ है— केवलदर्शनी ( प्रत्यक्षज्ञानी) के पास सुना मत का अर्थ है-मुचिन्तित । विज्ञात का अर्थ है- विवेक का विषय किया हुआ । जैसे पक्षी विभिन्न स्थानों से आकर रात्री में एक वृक्ष पर निवास करते हैं और प्रभात होने पर पुनः वहां से विभिन्न दिशाओं में चले जाते हैं। इसी प्रकार मनुष्य भी एकेन्द्रिय आदि विभिन्न जातियों से वहां आते हैं, कुछ काल तक साथ रहते हैं और आयुष्य पूर्ण होने पर पुनः विभिन्न जातियों में जाकर जन्म लेते हैं। पुनः पुनः जन्म लेने का तात्पर्य है कि वे एकेन्द्रिय आदि विभिन्न जातियों में जन्म-मरण के चक्र का अनुभव करते हैं । इस प्रकार प्रमाद के द्वारा किए हुए दोषों को देख कर प्रज्ञावान् वीर पुरुष दिन-रात निरंतर यत्न करने वाला हो। जो पुरुष विषय, कषाय आदि से प्रमत्त हैं, वे अहिंसा-धर्म से बाहर हैं, यह देख कर वह सदा अप्रमत्त होकर पराक्रम करे। जहां प्रमाद है वहां हिंसा है और जहां अप्रमाद है वहां अहिंसा है, यह इसकी फलश्रुति है । २. वृत्तौ व्याख्याभेदो वर्तते तस्मिन्नेव मनुष्याविजन्मनि 'शाम्यन्तो' गायेनात्यर्थमा कुर्वन्तः तथा 'प्रतीयमानाः ' मनोशेन्द्रियार्थेषु पौनःपुन्येन केन्द्रियद्रियादिकां जाति प्रकल्पयन्ति । ( आचारांग वृति पत्र १६३) २. अन चूर्ण (पृष्ठ १२०) सस्थालपुरुषस्य दृष्टान्तेन अप्रमादी व्याख्यातः कहं नाम रागादिदो घना प होज्जा ? पराणं परचकमे एरच तेसबालपुरिसेणी दहा हो अयमापगुणा मरणं ण पत्तो एवं साहवि सिरस For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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