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________________ अ० ४. सम्यक्त्व, उ० १. सूत्र ५-६ २११ आराधक एतां लोकैषणां न चरेत् । अनया हिंसायां का आराधक इस लोकषणा को न करे । इस लोकेषणा से हिंसा में प्रवृत्तिः स्यादिति दर्शितमुत्तराध्ययने प्रवृत्ति होती है----ऐसा प्रतिपादित है उत्तराध्ययन सूत्र में--- जणेण सद्धि होक्खामि, इइ बाले पगब्भई । ___'मैं लोक समुदाय के साथ रहूंगा' (जो उनकी गति होगी, कामभोगाणुराएणं, केसं संपडिवज्जई ।। वही मेरी होगी)-ऐसा मान कर बाल-अज्ञानी धृष्ट बन जाता है । वह कामभोग के अनुराग से क्लेश पाता है । तओ से दंड समारमई, तसेसु थावरेसु य । ___ 'फिर वह त्रस तथा स्थावर जीवों के प्रति दंड का प्रयोग अट्ठाए य अणट्ठाए, भूयग्गामं विहिसई ॥' करता है और प्रयोजनवश अथवा बिना प्रयोजन ही प्राणी-समूह की हिंसा करता है।' ८. जस्स णत्यि इमा णाई, अण्णा तस्स कओ सिया? सं०-यस्य नास्ति इयं ज्ञातिः, अन्या तस्य कुतः स्यात् । जिसे इस अहिंसा-धर्म का ज्ञान नहीं है, उसे अन्य तत्त्वों का ज्ञान कहां से होगा ? भाष्यम् ८-ज्ञातिः---ज्ञानम् । दृष्टेषु निर्वेदं कुर्यात्, ज्ञाति का अर्थ है ज्ञान । 'इन्द्रिय-विषयों के प्रति विरक्त रहे, नो लोकस्य एषणां चरेत् । एतद् अहिंसायाः अध्यात्मस्य लोकषणा न करे'—यह अहिंसा अथवा अध्यात्म का आधारभूत वा आधारभूतं तत्त्वमस्ति । यस्य इयं ज्ञातिनं भवति तत्त्व है। जिसको इसका ज्ञान नहीं होता, उसको अन्य तत्त्वों का ज्ञान तस्य अन्या ज्ञाति ः कुतो भवेत् ? य इन्द्रियाण्यतीत्य न कहां से होगा? जो इन्द्रियों का अतिक्रमण कर नहीं चलता, उसका वरति तस्य अहिंसायां क्व प्रवेशः ? अहिंसा में प्रवेश कैसे हो सकता है ? ९. दिठं सुयं मयं विण्णायं, जमेयं परिकहिज्जइ । सं०-दृष्टं श्रुतं मतं विज्ञातं, यदेतत् परिकथ्यते । यह अहिंसा-धर्म जो कहा जा रहा है, वह दृष्ट, श्रुत, मत और विज्ञात है । भाष्यम ९–यदेतद् अहिंसासूत्र परिकथ्यते तत् सर्व यह जो अहिंसा-सूत्र कहा जा रहा है वह सारा दृष्ट है, श्रुत है, दृष्टं श्रुतं मतं विज्ञातमस्ति । मत है और विज्ञात है। १. उत्तरज्झयणाणि ५७-८ । चणिकारेण ६-८ सूत्राणां वैकल्पिकोर्थः कृतोस्ति २. (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ १३५ : गाणं गाती, जं --अहवा "दिडेहि णिवेगं गच्छिज्जा' विट्ठा णाम भणितं तं अन्नतरइंदियरागदोसोवयोगो जस्सिमा पुव्वावरसंथुता बंधवा जहेते इहंपि णो जणवयातिपत्थि अन्ना केणप्पगारेण रागदोसणाती भविस्सति ? दुक्खपरित्ताणाए कि पुण परलोए ? एवं तेसु णिवेगं अहवा सवे पाणा ण हंतव्वा जाव ण उद्दवेयम्वा, गच्छे. 'णो य लोगेसणं' लोगो णाम सयणो, अहवा जस्स वा णाती णस्थि तस्सण्णआरंभपरिग्गहपवित्तेसु लोग इव लोगो ण णिच्छयतो कोयि सयणो, भणियं पासंडेसु णाती कतो सिता? जीवाजीवाति पदत्थे च-'पुत्तोपि अभिप्पायं पिउणो एस मग्गए वा तु' ण याणति सो कि अण्णं जाणिस्सतीति । सो सयणलोगो जइ इच्छति उप्पव्यावेतुं तं तस्स आचारांग वृत्ति, पत्र १६३ : यस्य मुमुक्षोरेषा एसणं ण चरे, तत्थ आलंबणं जस्स पत्थि इमा णाति' जातिः-लोकषणाबुद्धिः 'नास्ति' न विद्यते, तस्यान्या जस्स इहलोगे बंधवा ण भवति दुक्खपरित्ताणाए सावद्यारम्भप्रवृत्तिः कुतः स्यात् ? इदमुक्तं भवति अस्स अण्णेसु जातिसु कहं दुक्खं अवर्णस्संति । भोगेच्छारूपां लोकंषणां परिजिहीर्षोः नैव (आ० चू० पृष्ठ १३६) सावद्यानुष्ठानप्रवृत्तिरुपजायते, तदर्थत्वात् तस्या इति, ३. आचारांग चूणि, पृष्ठ १३५ : केवलदरिसणेण विट्ठें, सुतं यदि वा 'इमा' अनन्तरोक्तत्वात् प्रत्यक्षा सम्यक्त्व दुवालसंगं गणिपिडगं तं, आयरियाओ सुतमेतं णाम जह मम ज्ञातिः प्राणिनो न हन्तव्या इति वा यस्य न विद्यते दुक्खमसातं तहा अण्णेसि मां, विविहं विसिट्ठ वा गाणं तस्यान्या विवे किनी बुद्धिः कुमार्गसावधानुष्ठान विण्णाणं, परतो सुणित्ता सयं वा चिन्तिता एवं विष्णाणं परिहारद्वारेण कुतः स्यात् ? 'जह मम ण पियं दुक्खं जाणिय एमेव ।' Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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