________________
२१६
आचारांगभाष्यम् अमर्त्यः इति प्रथममालम्बनम् ।
को ग्रस लेती है। अथवा मृत्यु नाना दिशाओं से सभी दिशाओं से
आ सकती है । सभी प्राणी मरणधर्मा हैं । कोई भी अमर नहीं है। इच्छाप्रणीताः - इच्छा -- इन्द्रियमनोविषयान- दूसरा आलंबन-सूत्र हैकलाप्रवृत्तिः तां प्रणीताः। वक्रनिकेता:-मायाया कुछ लोग इच्छाप्रणीत-इन्द्रिय और मन की विषयानुकूल आश्रयभूताः । गृहीतकालाः'-मध्यमे अंतिमे वा वयसि प्रवृत्ति के द्वारा संचालित हैं, वक्रनिकेत - माया के आधारभूत बने हुए धर्म चरिष्यामः इत्यभिसंधिमन्तः। निचये- अर्थसंग्रहे हैं, गहीतकाल-मध्यम वय में अथवा अंतिम वय में हम धर्म की निविष्टाः। एतादृशाः पुरुषाः पृथक् पृथक् जाति आराधना करेंगे--- इस प्रकार सोचने वाले हैं तथा निचय- अर्थ-संग्रह प्रकल्पयन्ति-एकेन्द्रियादिषु विभिन्नासु जातिषु उत्पद्यन्ते में लीन हैं। ऐसे पुरुष एकेन्द्रिय आदि विभिन्न जीव-योनियों में उत्पन्न इति द्वितीयमालम्बनम् ।
होते हैं। १७. इहमेगेसि तत्थ-तत्थ संथवो भवति । अहोववाइए फासे पडिसंवेदयंति। सं०-इहैकेषां तत्र तत्र संस्तवो भवति । अधऔपपातिकान् स्पर्शान प्रतिसंवेदयन्ति । कुछ लोगों का विभिन्न मतों से परिचय होता है । वे आस्रव का सेवन कर अधोलोक में होने वाले स्पर्शों का संवेदन करते हैं।
भाष्यम् १७-संस्तवः-परिचयः, निर्देशः, संस्तव के तीन अर्थ हैं- परिचय, निर्देश अथवा समागम । समागमो वा।' इह एकेषां मनुष्याणां मिथ्यात्वकषाय- संसार में कुछ मनुष्यों का मिथ्यात्व, कषाय और विषयों से अभिभूत विषयाभिभूतैर्दर्शनैः परिचयो भवति । तेन ते सावद्या- दार्शनिक विचारों से परिचय होता है। उस परिचय के कारण वे चरणे उन्मुक्ता जायन्ते। ततश्च तेषां तत्र तत्र जातिषु सावद्य प्रवृत्ति करने के लिए उन्मुक्त हो जाते हैं। परिणाम स्वरूप समागमो भवति । तत्र अध औपपातिकान् स्पर्शान्- उनका उन-उन जीव योनियों में समागम होता है। वे वहां अधोलोक कष्टानि प्रतिसंवेदयन्ति ।
में होने वाले स्पों -कष्टों का बार-बार संवेदन करते हैं । १८. चिटठं कुरेहि कम्मेहि, चिठं परिचिट्ठति । अचिट्ठ कुरेहि कम्मेहि, णो चिट्ठ परिचिति ।
सं०-गाढं क्रूरेषु कर्मसु, गाढं परितिष्ठति । अगाढं क्रूरेषु कर्मसु, नो गाढं परितिष्ठति। जिस पुरुष के अध्यवसाय प्रगाढ क्रूरकर्म में प्रवृत्त होते हैं, वह प्रगाढ वेदना वाले स्थान में उत्पन्न होता है। जिसके अध्यवसाय प्रगाढ क्रूरकर्म में प्रवृत्त नहीं होते, वह प्रगाढ वेदना वाले स्थान में उत्पन्न नहीं होता।
भाष्यम् १८-शिष्यः पृच्छति-भगवन् ! अध- शिष्य ने पूछा-भगवन् ! अधोलोक में होने वाले कष्टों की औपपातिकान् स्पर्शान् वेदयमानाः सर्वे समवेदना वेदना क्या सभी जीवों के समान होती है ? भगवान ने कहा-'नहीं, भवन्ति ? नायमर्थः समर्थः । कथम् ? इति ऐसा नहीं होता।' क्यों ? इस प्रतिप्रश्न का उत्तर है-जो क्रूर प्रतिप्रश्ने उत्तरम्-यः कुरेषु कर्मसु प्रवर्तते स कर्म में प्रवृत्त होता है वह नरक आदि अशुभ स्थानों में उत्पन्न होकर नरकाद्यशुभस्थानेषु उपपातमासाद्य गाढं परितिष्ठति तीव्र वेदना का अनुभव करता है। जो प्रगाढ क्रूर कर्म में प्रवृत्त नहीं
-तीव्रवेदनो भवति । यश्च करेषु कर्मसु अगाढं प्रवर्तते होता, वह नरक आदि अशुभ स्थानों में उत्पन्न होकर भी अल्प वेदना स नरकाद्यशुभस्थानेषु उपपातमासाद्यापि अल्पवेदनो का अनुभव करता है। इस आलापक में तीव्र अध्यवसाय तथा मंद भवति। अत्र तीव्राध्यवसायमन्दाध्यवसाययोश्च अध्यवसाय का विपाकभेद दिखाया गया है। शुभ कर्म के विषय में विपाकभेदः प्रदर्शितः । शुभकर्मविषयेऽपि एवं वाच्यम् । भी ऐसा ही जान लेना चाहिए। १. आवारांग वृत्ति, पत्र १६६ : कालगृहीताः, आहिताग्नि
अह ते सकम्मनिद्दिळं अण्णतरं गति गया, उबवाते वर्शनाद् आर्षत्वाद् वा निष्ठान्तस्य परनिपातः ।
जाता उववाइया फुसंति । २. आचारांग चूणि, पृष्ठ १४१ : इह संसारे संयुति संथवो, (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र १६७ : अधऔपपातिकान अप्पसत्थो नेरइओ नेर इयत्तेण, संथुवति णाम निद्दि
नरकादिभवान् 'स्पर्शान्' दुःखानुभवान् प्रतिसंवेदसिज्जति एवमावि, पसत्यं तुं देवो देवत्तेण, अहवा समागमो
यन्ति । संथवो।
४. आचारांग चूणि, पृष्ठ १४१ : चिट्ठति वा गाढति वा ३. (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ १४१ : अध इति अणंतरे,
एगट्ठा।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org