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अ० ३. शीतोष्णीय, उ० २. सूत्र २७-३१ मोक्षो वा । यावत् जीवः परमसद्भावस्य भावनां न जब तक जीब परमसद्भाव की भावना नहीं करता, तब तक वह दुःखकरोति तावद् दुःखमुक्तो न भवति । तं ज्ञात्वा त्रिविद्यः मुक्त नहीं होता। उसको जानकर त्रिविद्य समत्वदर्शी अथवा समत्वदर्शी सम्यक्त्वदर्शी वा भवति । स च पापं न सम्यक्त्वदर्शी होता है। वह पाप नहीं करता। बह ऐसा आचरण करोति । आश्रवस्य कर्मणश्च यतो वृद्धिः स्यात् तन्ना- नहीं करता जिससे आश्रव और कर्म की वृद्धि होती हो। तीन चरति । पूर्वजन्मज्ञानं जन्ममरणयोर्ज्ञानं आस्रवक्षयज्ञानं विद्याएं हैं-(१) पूर्वजन्म का ज्ञान, (२) जन्म-मरण का ज्ञान, चेति तिस्रो विद्याः। एतासां विद्यानां ज्ञाता त्रिविद्यो (३) आम्रव-क्षय का ज्ञान । जो इन तीनों विद्याओं का ज्ञाता होता भवति ।
है, वह 'त्रिविध' कहलाता है।
२६. उम्मच पासं इह मच्चिएहिं ।
सं.-उन्मुञ्च पाशं इह मत्यैः । मनुष्यों के साथ होने वाले पाश --प्रेमानुबंध का विमोचन कर।
भाष्यम् २९-हे पुरुष ! त्वं इह मनुष्यैः संजायमानं हे पुरुष ! तू इस संसार में मनुष्यों के साथ होने वाले पाश पाशं मुञ्च । पाश:--बन्धनम् । रागादयः पाशाः का विमोचन कर। पाश का अर्थ है-बन्धन । राग आदि बंधन भवन्ति । उत्तराध्ययने लभ्यते-णेहपासा भयंकरा। हैं। उत्तराध्ययन में कहा है-'स्नेहबंधन भयंकर होता है।'
३०. आरंभजीवी उ भयाणुपस्सी।
सं०-आरम्भजीवी तु भयानुदर्शी। आरंभजीवी मनुष्य भय को देखता है ।
भाष्यम् ३०-कामार्थ मनुष्यः आरम्भे प्रवर्तते । यः कामनाओं की पूर्ति के लिए मनुष्य हिंसा में प्रवृत्त होता है । आरम्भजीवी भवति स भयं अनुपश्यति । महारम्भ- जो हिंसाजीवी होता है वह सर्वत्र भय देखता है। हम यह प्रत्यक्ष महापरिग्रहयोः प्रवृत्तस्य बन्ध-वध-रोध-मरणावसानानि अनुभव करते हैं कि जो मनुष्य महान आरंभ और महान् परिग्रह में भयानि जायन्ते इति प्रत्यक्षमेव ।
प्रवृत्त होता है वह बंध, वध, अवरोध तथा मृत्यु के भय से आतंकित रहता है।
३१. कामेसु गिद्धा णिचयं करेंति, संसिच्चमाणा पूणरेंति गम्भ।
सं०-कामेषु गृद्धाः निचयं कुर्वन्ति, संसिच्यमानाः पुनर्यन्ति गर्भम् । कामों में आसक्त मनुष्य संचय करते हैं । संचय को आसक्ति का सिंचन पाकर वे बार-बार जन्म को प्राप्त होते हैं ।
भाष्यम् ३१-निचयो द्विविधः-स्वर्णादिपदार्थानां संचय दो प्रकार का होता है-स्वर्ण आदि पदार्थों का संचय निचयः कर्मणां निचयश्च । तस्य कारणमस्ति कामेषु और कर्मों का संचय । संचय का मूल कारण है-कामनाओं में होने जायमाना गृद्धिः। द्विविधोऽपि निचयः मूर्छाभावेन वाली आसक्ति । दोनों प्रकार के संचयों का जनक है-मूर्छाभाव । जन्यते । ये निचयजनके भावे प्रवर्तन्ते ते तादृशेन भावेन जो पुरुष संचय के जनक मूर्छाभाव में प्रवृत्त होते हैं वे उस मूर्छाभाव संसिच्यमानाः पुनर्गर्भमायान्ति । यथा महामेघेन का अत्यधिक सिंचन पाकर बार-बार जन्म को प्राप्त होते हैं। जैसे संसिच्यमानानि बीजानि अङ कुरितानि भवन्ति । महामेध से सिंचित होकर बीज अंकुरित हो जाते हैं।
१. (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ १११ : परं माणं जस्स तं परमं,
तंच सम्मदसणादि, सम्मसणनाणाओवि चरितं । (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र १४५ : परम-मोक्षपदं सर्व
संवररूपं चारित्रं वा सम्यग्ज्ञानं सम्यग्दर्शनं वा।
२. दीघनिकाय भाग ३, पृष्ठ १६२ : तिस्सो विज्जा–पुग्वे निवासानुस्सरति आणं विज्जा, सत्तानं चुतूपपाते जाणं विज्जा, आसवाणं खये जाणं विज्जा। ३. उत्तरज्मयणाणि, २३१४३ ।
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