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________________ अ० ६. उपधानश्रुत, उ० ३. गाथा २-४ ३. लाढेहि तस्सुवसग्गा, बहवे जाणवया लूसिंसु । अह सूहदेसिए भत्ते, कुक्कुरा तत्थ हिंसिंसु णिवतिंसु || सं० - लाढेषु तस्योपसर्गाः, बहवो जानपदाः अलोषिषुः । अथ रूक्षदेश्यं भक्तं कुर्कुराः तत्राऽहिसिषुः न्यपप्तन् । लाढ के जनपदों में भगवान् ने अनेक उपसर्गों का सामना किया। उन जनपदों के लोगों ने भगवान् पर अनेक प्रहार किए। वहां का भोजन प्राय: रूखा था । कुत्ते भगवान् को काट खाते और आक्रमण करते । " - भाष्यम् ३ - जानपदाः— जनपदे भवाः जानपदाः । तैर्भगवान् काष्ठमुष्टिप्रहारादिभिर्जुषितः । तत्र प्रदेशे भक्तं रूक्षदेश्य – रूक्ष कल्पं, प्रायो घृतादिविवजितमासीत्।' तेन तत्रत्याः लोका: अत्यन्तं क्रोधपरायणाः अभवन् । तेनायमुपद्रवो जातः । तत्रत्यानां शुनामपि परीवह समुपजनितः । 'शय्यां' वर्सात शून्यगृहादिकामनेोपद्रवोपद्रुतां सेवितवान् तथा प्रान्तानि चासनानि पशूकरशर्करालोष्टाद्युपचितानि च काष्ठानि च दुर्घटितान्यासेवितवानिति । ४. अप्पे जणे निवारे, लूसणए सुणए दसमाणे छुछुकारंति आहंसु, समणं कुक्कुरा उसंतुति । सं० - अल्पः जनः निवारयति, लूषनकान् शुनकान् दशतः । छुछुकारयन्ति आहुः श्रमणं कुर्कुरा: दशन्तु इति । वहां कुत्ते काटने आते या भौंकते, तब कोई-कोई व्यक्ति उन्हें रोकता, किंतु बहुत सारे लोग भ्रमण को कुत्ते काट खाएं इस भावना से 'छू-छू' कर कुत्तों को बुलाते और भगवान् के पीछे लगाते । १. (क) आचारांग चूर्णि, पृष्ठ ३१८ : जणवते भवा जाणपदा, यदुक्तं भवति - अणगरजणवओ पायं सो विसओ, ण तत्थ नगरादीणि संति । (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र २८२ : जनपदे भवा जानपदाःअनscarfरण लोकाः ते भगवन्तं भूषितवन्तोदन्तभक्षणोल्मुकदण्डप्रहारादिभिजिहिंसुः । २. आचारांग चूर्णि पृष्ठ ३१८ : लूसह सो कट्टुमुट्टप्पहाराएहि अहम सूति, एगे हि वातेति। ३. (क) चूर्णिकारेण (पृष्ठ ३१८) मक्वेश इति व्याख्यातम् तसे पाएण रुक्खाहारा तैलघृतविवजिता रूक्षा, भदेस] इति बब्बे बंधानुलोमओ उपक्कमकरणं । छन्दोदृष्ट्या लूहदेसीए भत्ते इति सूत्रितं सूषकारेण अह लूहदेखिए मते (ख) वृत्तिकारण (पत्र २०२ ) रूक्षदेश्यं मक्तमिति व्याख्यातम् अयम्योऽपिशब्दार्थ स पंवं द्रष्टव्यः, भक्तमपि तत्र रूक्षवेश्यं रूक्षकल्पमन्तप्रान्तमितियावत् । ४. आचारांग चूर्णि पृष्ठ ३१८ 'मेह गोवांगरसीरहिणि रूक्षं गोवालहलवाहादीणं सीतकूरो, आमंतेकणं अंबिलेण अलोणेण एए दिज्जति मज्झरहे लुक्खएहि, माससहाएहि तं पिणात प्रकामं, ण तत्थ तिला संति, ण गावीतो बहुगीतो, कप्पासो या तणपाउरणातो ते परक्खाहारता अतीव ४३३ Jain Education International जानपद का अर्थ है - जनपद में होने वाले अर्थात् नागरिक । लाढ देश के लोगों ने भगवान् पर काष्ठ, मुट्ठी आदि से प्रहार किए। उस प्रदेश में भोजन प्रायः रुवा, घी आदि से रहित होता था । इसलिए वहां के लोग अत्यंत क्रोधी होते थे इसलिए यह उपद्रव हुआ। यहां के कुत्तों का परीवह भी भगवान् को सहना पड़ा। कोहणा, रस्सिता अक्कोसादी य उवसग्गे करेंति । ' ५. (क) आचारांग चूर्ण, पृष्ठ ३१८ : 'तत्थ बहवे, कुक्कुरादी हितीति हिंसि नियतिति सम्म तं निवसति, महारस मनत्य इंड िजेण ते पुण पवारेहिति ते एवं जिम्मा चिया पिकांता ।' (ख) लाढ प्रदेश पर्वतों और बीहड़ जंगलों के कारण बहुत दुर्गम था, फिर भी भगवान् वहां गए। वहां भगवान् को रहने के लिए प्रायः सूने और टूटे-फूटे घर मिले। उन्हें बैठने के लिए काष्ठासन, फलक और पट्ट मिले। वे भी धूल, उपले और मिट्टी से सने हुए थे, फिर भी भगवान् के समभाव में कोई अन्तर नहीं आया । लाढ प्रदेश के वज्र और सुम्ह प्रदेशों में प्रायः नगर नहीं थे । वहां तिल नहीं होते थे, गाएं भी बहुत कम थीं, इसलिए तेल और मृत सुलम नहीं थे। फलतः वहां के निवासी रूखा भोजन करते थे। रूखा आहार करने के कारण वे बहुत क्रोधी थे, बात-बात में रुष्ट होना, गाली देना, प्रहार करना उनके लिए सहज था। वे घास के द्वारा शरीर का प्रावरण करते थे । भगवान् मध्याह्न में भोजन लेते थे। वहां उन्हें चावल (पानी में भिगोकर रखे हुए) और उड़द की दाल मिलती थी, अम्ल रस मिलता था, नमक नहीं । वहाँ मुझे बहुत बुंधार होते थे वहां के निवासी तों से बचाव करने के लिए लाठी और डंडे रखते थे। भगवान् के पास न कोई लाठी थी और न कोई डंडा । इसलिए कुत्तों को आक्रमण करने में कोई रुकावट नहीं होती थी । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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