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________________ ५२९ परिशिष्ट ११ : सूक्त और सुभाषित उवेहमाणो पत्तेयं सायं । ॥५२ सुख अपना-अपना होता है-साधक इसको निकटता से अपयस्स पयं णत्थि।।१३९ आत्मा अपद है । उसका बोध कराने वाला कोई पद नहीं देखे। वण्णाएसी णारभे कंचणं सम्वलोए । ०५३ यश की इच्छा से किसी भी क्षेत्र में कुछ भी मत करो। जं सम्मं ति पासहा, तं मोणं ति पासहा । जं मोणं ति पासहा, तं सम्म ति पासहा । ५४५७ जो सम्यक् है, वह ज्ञान है । जो ज्ञान है, वह सम्यक् है । वयसा वि एगे बुइया कुप्पंति माणवा । ५२६३ अज्ञानी मनुष्य थोडे-से प्रतिकूल वचन से भी कुपित हो जाते हैं। उन्नयमाणे य गरे, महता मोहेण मुमति । ५।६४ ___ अहंकारग्रस्त मनुष्य महान् मोह से मूढ हो जाता है। इच्चेते कलहासंगकरा भवंति । २९६ ये काम कलह और आसक्ति उत्पन्न करने वाले होते हैं । वितिगिच्छ-समावन्नेणं अप्पाणेणं णो लमति समाधि । ५।९३ शंकाशील आत्मा समाधि को प्राप्त नहीं होता। तमेव सच्चं णीसंक, जंजिणेहि पवेइयं । २९५ वही सत्य और निःशंक है, जो तीर्थंकरों ने कहा है। अंजू चेय पडिबुद्धजीवी । ५॥१०२ ज्ञानी पुरुष ऋजु तथा समझ कर जीने वाला होता है। जे आया से विण्णाया, जे विण्णाया से आया। ॥१०४ जो आत्मा है, वह ज्ञाता है और जो ज्ञाता है, वह आत्मा पासह एगेवसीयमाणे अणत्तपण्णे । ६।५ आत्मप्रज्ञा से शून्य व्यक्ति अवसाद को प्राप्त हो रहे हैं। पाणा पाणे किलेसंति । ६।१३ प्राणी प्राणियों को कष्ट देते हैं। बहुदुक्खा हु जंतवो। ६.१५ जीवों के नाना प्रकार के दुःख हैं। सत्ता कामेहि माणवा । ६।१६ मनुष्य कामनाओं में आसक्त हैं । ण महं अत्थित्ति इति एगोहमंसि । ६।३८ __ मेरा कोई नहीं है, इसलिए मैं अकेला हूं। विस्सेणि कट्ट परिणाए । ६६८ समत्व की प्रज्ञा से मूर्छा को छिन्न कर डालो। वसट्टा कायरा जणा लूसगा भवंति । ६।९५ वशार्त और कायर मनुष्य व्रतों का विध्वंस करने वाले होते हैं। तम्हा लहाओ णो परिवित्तसेज्जा । ६११० संयम से उद्विग्न मत बनो। कसाए पयणुए चिच्चा । ८।१२५ कषायों को कृश करो। जीवियं णाभिकखेज्जा, मरणं णोवि पत्थए । बुहतोवि ण सज्जेज्जा, जीविते मरणे तहा ॥८८४ न जीने की आकांक्षा करो और न मरने की इच्छा करो। जीवन और मरण-दोनों में आसक्त मत बनो। भेउरेसु न रज्जेज्जा, कामेसु बहुतरेसु वि।) इच्छा-लोभं ण सेवेज्जा, सुहुमं वणं सपेहिया ॥८८।२३ । क्षणभंगुर कामभोगों में अनुरक्त मत बनो । इच्छा-लोभ का सेवन मत करो। संयम बहुत सूक्ष्म होता है। सोवहिए हु लुप्पती बाले । ९।१।१३ अज्ञानी मनुष्य परिग्रह का संचय कर छिन्न-भिन्न होता है। अदु सव्वजोणिया सत्ता। ९।१।१४ जीव सर्वयोनिक हैं—प्रत्येक जीब प्रत्येक योनि में उत्पन्न हो सकता है। कम्मुणा कप्पिया पुढो बाला । ९।१।१४ अज्ञानी जीव अपने ही कर्मों के द्वारा विविध रूपों की रचना करते रहते हैं। इथिओ"सब्वकम्मावहाओ।९।११७ स्त्रियां सब कर्मों का आह्वान करने वाली हैं। अणाणाए एगे सोवट्ठाणा, आणाए एगे निस्वट्ठाणा । ।१०७ कुछ पुरुष अनाज्ञा (अनुपदेश) में उद्यमी और आज्ञा (उपदेश) में अनुद्यमी होते हैं । अणभिभूते पभू निरालंबणयाए । ५।१११ जो बाधाओं से अभिभूत नहीं होता, वही निरालंबी हो सकता है। जे महं अबहिमणे । ५।११२ जो मोक्षलक्षी है, वह मन को असंयम में न ले जाए। णिद्देसं णातिवटेज्जा मेहावी। ५११५ मेधावी व्यक्ति निर्देश का अतिक्रमण न करे । सच्चमेव समभिजाणिया। ५११६ सत्य का ही अनुशीलन कर। अच्चेइ जाइमरणस्स वट्टमग्गं वक्खायरए। २१२२ वही व्यक्ति जन्म और मृत्यु के वृत्तमार्ग का अतिक्रमण कर देता है जो वीतराग के उपदेश में रत है। Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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