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परिशिष्ट ११
सूक्त और सुभाषित
अट्टे लोए परिजुण्णे, दुस्संबोहे अविजाणत । ११३
मनुष्य आर्त और अभावग्रस्त है। वह सत्य को सरलता
से समझ नहीं पाता, अतः अज्ञानी बना रहता है। अस्सि लोए पम्वहिए। १।१४
अज्ञानी व्यथा का अनुभव करता है । पणया वीरा महावीहि । ११३७
वीर पुरुष महापथ के प्रति प्रणत होते हैं। जे लोयं अन्माइक्खइ, से अत्ताणं अन्माइक्खइ । जे अत्ताणं अभाइक्खइ, से लोयं अन्भाइक्खइ । १।३९
जो जीवों के अस्तित्व को अस्वीकार करता है, वह अपनी आत्मा के अस्तित्व को अस्वीकार करता है। जो अपनी आत्मा के अस्तित्व को अस्वीकार करता है,
वह जीवों के अस्तित्व को अस्वीकार करता है। तं से अहियाए, तं से अबोहोए । ११४६
हिंसा अहित और अबोधि के लिए होती है। एस खलु गंथे, एस खलु मोहे, एस खलु मारे, एस खलु नरए।
१४८ हिंसा ग्रन्थि है, मोह है, मृत्यु है, नरक है ।। जे पमत्ते गुणट्ठिए, से हु दंडे पच्चति । १६९
जो प्रमत्त है, विषयार्थी है, वह दंड है। इयाणि णो जमहं पुत्वमकासी पमाएणं । १७०
वह अब नहीं करूंगा जो मैंने प्रमादवश पहले किया था। इच्चत्यं गढिए लोए । १८०
सुख-सुविधा में मूच्छित मनुष्य हिंसा करता है। जे गुणे से आवट्टे, जे आवट्टे से गुणे। १९३
जो विषय है वह आवत्तं है। जो आवर्त है वह विषय
जे अज्मत्थं जाणइ, से बहिया जाणइ । जे बहिया जाणइ, से अज्झत्थं जाणइ । १।१४७
जो अध्यात्म को जानता है, वह बाह्य को जानता है ।
जो बाह्य को जानता है, वह अध्यात्म को जानता है। संतिगया दविया। ११४९
मुनि शात और संयमी होते हैं । आरंभमाणा विणयं वयंति । ११७१
आश्चर्य है, स्वयं हिंसा करते हैं और दूसरों को अहिंसा का
उपदेश देते हैं। जे गुणे से मूलढाणे, जे मूलढाणे से गुणे । २।१
जो इन्द्रिय-विषय है वह लोभ है। जो लोभ है, वह
इन्द्रिय-विषय है। अभिक्कतं च खलु वयं संपेहाए । २१५
अवस्था बुढ़ापे की ओर जा रही है, यह देखकर पुरुष
चिन्ताग्रस्त हो जाता है । नालं ते तव ताणाए वा, सरणाए वा। तुमं पि तेसि नालं ताणाए वा, सरणाए वा । २१८
हे पुरुष ! संसार में कोई तुम्हें त्राण या शरण देने में समर्थ नहीं हैं । तुम भी किसी को त्राण या शरण देने में
समर्थ नहीं हो। धीरे मुहत्तमवि णो पमायए । २०११
धीर पुरुष क्षणभर भी प्रमाद न करे । वयो अच्चेइ जोग्वणं च । २।१२
अवस्था और यौवन बीत रहे हैं। अकडं करिस्सामित्ति... । २।१५
मैं वह करूंगा, जो आज तक किसी ने नहीं किया-यह
अहंमन्यता है। दुक्खं पत्तेयं सायं । २।२२।।
दुःख और सुख अपना-अपना होता है। खणं जाणाहि पंडिए। २।२४
तू क्षण को पहिचान। पण्णाणेहि अपरिहीणेहि आयलैं सम्मं समणुवासिज्जासि ।
२।२६ इन्द्रिय-प्रज्ञानों के पूर्ण रहते हुए तू आत्महित का सम्यक अनुशीलन कर।
एत्थ अगुत्ते अणाणाए। १३९७
जो अगुप्त है-असंयत है, वह आज्ञा में नहीं है । आयंकदंसी अहियं ति नच्चा । ११४६
जो हिंसा में आतंक और अहित देखता है, वही उससे निवृत्त होता है।
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