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________________ अ०८. विमोक्ष, उ०५. सूत्र ६२-७६ ३८१ ७१. अदुवा अचेले। सं०-अथवा अचेलः । या वह अचेल (वस्त्र-रहित) हो जाए। ७२. लाघवियं आगममाणे । सं० लाघविकं आगच्छन् । वह लाघव का चिन्तन करता हुआ वस्त्र का क्रमिक विसर्जन करे। ७३. तवे से अभिसमन्नागए भवति ।। सं०-तपस्तस्य अभिसमन्वागतं भवति । अल्प वस्त्र वाले मुनि के उपकरण-अवमौदर्य तथा कायक्लेश तप होता है। ७४. जमेयं भगवता पवेदितं, तमेव अभिसमेच्चा सव्वतो सम्वत्ताए समत्तमेव समभिजाणिया। सं०-यदिदं भगवता प्रवेदितं, तदेव अभिसमेत्य सर्वतः सर्वात्मतया समत्वमेव समभिजानीयात् । भगवान् ने जैसे अल्प-वस्त्रत्व का प्रतिपादन किया है, उसे उसी रूप में जानकर सब प्रकार से, सर्वात्मना (सम्पूर्ण रूप से) समत्व का सेवन करे-किसी की अवज्ञा न करे। माण्यम् ६२-७४ - द्रष्टव्यम्-४३-५६ । देखें--४३-५६ । ७५. जस्स णं भिक्खस्स एवं भवति-पुट्ठो अबलो अहमंसि, नालमहमंसि गिहंतर-संकमणं भिक्खायरिय-गमणाए से एवं ववंतस्स परो अभिहडं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा आहटु दलएज्जा, से पुम्वामेव आलोएज्जा आउसंतो! गाहावतो! णो खलु मे कप्पइ अभिहडे असणे वा पाणे वा खाइमे वा साइमे वा भोत्तए वा, पायए वा, अण्णे वा एयप्पगारे। सं०-यस्य भिक्षोः एवं भवति-स्पृष्टोऽबलोहमस्मि, नालमहमस्मि गृहान्तरसंक्रमणाय भिक्षाचर्यागमनाय, तस्य एवं वदतः परः अभिहृतं अशनं वा पानं वा खाद्यं वा स्वाधं वा आहृत्य दद्यात्, स पूर्वमेव आलोचयेत् आयुष्मन् गृहपते ! नो खलु मम कल्पते अभिहृतं अशनं वा पानं वा खाद्यं वा स्वाद्यं वा भोक्तुं वा पातुं वा अन्यद् वा एतत् प्रकारम् । जिस भिक्षु को यह लगे-मैं रोग से आक्रांत होने के कारण दुर्बल हो गया हूं। मैं भिक्षाचर्या के निमित्त नाना घरों में जाने में समर्थ नहीं हैं। इस प्रकार कहने वाले भिक्षु को गृहस्थ अपने घर से अशन, पान, खाद्य या स्वाद्य लाकर दे । वह भिक्षु पहले ही आलोचना करे-यह आहार किस दोष से दूषित है। आलोचना कर कहे -- 'आयुष्मन् गृहपति ! यह घर से लाया हुआ अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य मैं खा-पी नहीं सकता।' इस प्रकार के दूसरे दोष से दूषित आहार के लिए भी वह गृहपति को प्रतिषेध कर दे। भाष्यम ७५ --अत्र परपदेन श्रावकादीनां ग्रहणं, यथा प्रस्तुत आलापक में 'पर' शब्द से श्रावक आदि का ग्रहण च चों-परो णाम सावओ वा सण्णी अहामद्दओ वा किया है। जैसे - चूर्णिकार ने 'पर' के चार अर्थ किए हैं श्रावक, मिच्छाविट्ठी वा अणुकंपाए परिणतो।" संज्ञी, यथाभद्रक और अनुकंपा में परिणत मिथ्यादृष्टि। ७६. जस्स णं भिक्खस्स अयं पगप्पे-अहं च खलु पडिण्णत्तो अपडिण्णत्तेहि, गिलाणो अगिलाणेहि, अभिकंख साहम्मिएहिं कीरमाणं वेयावडियं सातिज्जिस्सामि । अहं वा वि खलु अपडिण्णत्तो पडिपणत्तस्स, अगिलाणो गिलाणस्स, अभिकंख साहम्मिअस्स कुज्जा वेयावडियं करणाए।। सं०-यस्य भिक्षोः अयं प्रकल्प:-अहं च खलु प्रतिज्ञप्तः अप्रतिज्ञप्तः, ग्लानः अग्लानः, अभिकांक्ष्य साधर्मिकः, क्रियमाणं वैयापत्यं स्वादयिष्यामि । अहं वापि खलु अप्रतिज्ञप्तः प्रतिज्ञप्तस्य, अग्लान: ग्लानस्य, अभिकांक्ष्य सार्मिकस्य कुर्यात् वैयाप्रत्यं करणाय । १. आचारांग चूणि, पृष्ठ २७७ । . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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