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________________ ४०४ आचारांगभाष्यम् २४. सासएहि णिमंतेज्जा, दिव्यं मायं ण सद्दहे । तं पडिबुज्झ माहणे, सव्वं नमं' विधूणिया ॥ सं०---शाश्वतेभ्यः निमन्त्रयेत्, दिव्या मायां न श्रद्दधीत । तां प्रतिबुध्य माहनः, सर्व नूमं विधूय । कोई देव दिव्य-भोगों के लिए निमंत्रित करे, तब भिक्षु उस देव-माया पर श्रद्धा न करे। वह भिक्ष माया को जानकर सब प्रकार से उसको क्षीण कर दे। भाष्यम् २४ - तस्यामवस्थायां देवा अपि साक्षात् उस अनशन की अवस्था में देव भी साक्षात् प्रकट होते हैं। प्रकटीभवन्ति । कश्चिद्देव : शाश्वतकामाय' निमंत्रयत्यपि। कोई देव शाश्वत काम (दिव्य भोग) के लिए निमंत्रण भी देता है। तनिमंत्रणं विचलनार्थमपि स्यात्, परीक्षार्थमपि स्यात्, वह निमंत्रण विचलित करने के लिए भी हो सकता है, परीक्षा के लिए अन्यत्प्रयोजनायापि स्यात् । तदानीं प्रज्ञावान् भिक्षुरिति भी हो सकता है तथा किसी अन्य प्रयोजन के लिए भी हो सकता है। चिन्तयेत्-इमे दिव्यभोगा अपि सावधिकाः, दीर्घ- उस समय प्रज्ञावान् भिक्षु चिन्तन करे-ये दिव्य भोग भी सावधिक हैं, कालिका अपि न शाश्वतिकाः । एवं विचिन्त्य तां दिव्य- दीर्घकालिक होने पर भी शाश्वत नहीं हैं, इस प्रकार चिन्तन कर वह मायां न श्रद्दधीत । तस्याः प्रतिबोधपूर्वकं विधूननं उस दिव्य माया पर श्रद्धा न करे। उसको ज्ञानपूर्वक धुन डाले, कुर्यात् । विजित कर दे। नूमम्-माया। नूम का अर्थ है-माया। २५. सव्वठेहि अमुच्छिए, आउकालस्स पारए । तितिक्खं परमं णच्चा, विमोहण्णतरं हितं ॥–ति बेमि । सं० --सर्वार्थेषु अमूच्छितः, आयुःकालस्य पारगः । तितिक्षां परमां ज्ञात्वा, विमोहान्यतरद् हितम् । -इति ब्रवीमि । दिव्य और मानुषी-सब प्रकार के विषयों में अमूच्छित और आयुकाल के पार तक पहुंचने वाला भिक्ष तितिक्षा को परम जानकर विमोह- भक्त-प्रत्याख्यान, इंगिनीमरण और प्रायोपगमन में से किसी एक को हितकर मानकर उसका आलंबन ले। -ऐसा मैं कहता हूं। भाष्यम् २५--जीवनं अनशनपूर्वक समापयेद् इति जीवन की समाप्ति अनशनपूर्वक हो, यह समाधि-मरण का तत्त्व समाधिमरणस्य तत्त्वमस्ति। त्रिष्वपि विमोहेषु है। तीनों विमोहों (अनशनों) में से किसी एक विमोह का स्वीकार अन्यतमस्य विमोहस्य स्वीकारः हितकरोऽस्ति । हितकर है। अनशनकाल में सब अर्थों-शब्द आदि विषयों, भले फिर सर्वार्थेषु-शब्दादिविषयेषु दिव्येषु मानुषेषु च अमूर्छा, वे दैविक हों या मानुषिक, में अमूर्छा तथा प्राप्त उपसर्गों और प्राप्तेषु परीषहेषु उपसर्गेषु वा तितिक्षा परमं हितमस्ति । परीषहों में तितिक्षा-यह परम हितकर है। यह जानकर भिक्षु इति ज्ञात्वा अनशनस्य सम्यक् आराधनां कुर्यात् । अनशन की सम्यक् आराधना करे । १. देशीयशब्दः। २. आचारांग चूणि, पृष्ठ २९६ : सासयमिति णितिएहि, कोयी देवता व समत्थं पडिणीतताए बा, तं मायां, किं एवं किलिस्ससि ? अहं ते सासते कामे देमि, जं भणितंदिब्वे, उठेहि एतं विमाणं, तं च अट्ठाए सक्केण देवराइणा पेसिता, सरूवेणमेव सग्गं आरुभिज्जासि, अन्नं वा जं इच्छसि तं ते वरं देमि रज्जं धणं वा अक्खयं जीवितं, एतं निमंतते तहि देवे। ३. चू! अस्य वैकल्पिकोर्थोपि लभ्यते- 'अहवा दिव्वं आयं ण सद्दहे, आतं लाभं आगमणं ण सद्दहे, एवं देवीवि दिव्वं रूवं विउम्वित्ता भोगेहि निमंतिज्जा साभावितं कइयवियं वा, तं दिव्वमायं ण सद्दहे।' (आचारांग चूणि, पृष्ठ २९६) ४. चूणी बैकल्पिकोर्थोपि सम्मतः- अहवा नूमं कम्मं । (आचारांग चूणि, पृष्ठ २९६) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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