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________________ अ० २. लोकविचय, उ० ६. सूत्र १७५ १७७ १७६. एत्थंपि जाण, सेयंति णत्थि । सं० अत्रापि जानीहि श्रेयः इति नास्ति । तुम जानो, अविधिपूर्वक की जाने वाली धर्म-कथा में भी श्रेय नहीं है । माध्यम् १७६ – विचारस्व आग्रहो ममत्वं वा परिग्रहो भवति । अपरिग्रहसाधनामां प्रवृतेन पुरुषेण स्वविचारास्तथा प्रतिपादनीयाः यथा स्वस्य श्रोतुश्च अपरिग्रहो विकासं व्रजेत् । 1 अत्रापि जानोहि धर्मतस्वस्थ प्रतिपादने सम्यग् विवेचनीयम् । विवेकाभावे श्रेयो नास्ति । तत्र प्रथमः स्वसामर्थ्यविवेकः । धर्मकथालब्धिसम्पन्नेन आक्षेपणी, विक्षेपणी, संबैजनी, निवेदनी' इत्यादिरूपा चतुविधापि कथा करणीया । धर्मकथाकरणाभ्यासिना आक्षेपणी, विक्षेपणी- द्विविधैव कथा करणीया, न तु तेन दार्शनिकविषयस्य स्पर्शः कार्यः । अपरिपक्वज्ञानः यदि तद् विषयं स्पृशेत् तदा प्राप्तान् प्रश्नान् समाधातुं न शक्नोति इति श्रेयो न भवति । द्वितीय: क्षेत्रविवेकः । कस्य दर्शनस्य प्रभावेण प्रभावित क्षेत्रमिदं इति विवेकं कृत्वैव धर्मकथा करणीया, अन्यथा श्रेयो न भवति विग्रहः समुत्पद्यते । तृतीयः कालविवेकः कस्मिन् समये कि वक्तव्यम्, इति विवेकपूर्वकं धर्मः प्रतिपादनीयः । चतुर्थी भावविवेकः । स च साक्षात् सूत्रेण प्रोच्यते- भाष्यम् १७७ धर्मकथायाः प्रसंगे इति विवेक: कार्य : – कोऽयं पुरुषः -- पुण्यः तुच्छो वा ? मृदुस्वभाव: कठोरस्वभावो वा ? श्रद्धाप्रवणस्तर्कप्रवणो वा ? जिज्ञासुः संघर्षशीलो वा ? एवं असौ कतरत् प्रवचनं प्रवचनकारं वा प्रणतः - प्रतिपन्नः ? १.१ ४२४६ । Jain Education International विचार का आग्रह या ममत्व भी परिग्रह होता है । जो व्यक्ति अपरिग्रह की साधना में प्रवृत्त है उसे अपने विचारों का प्रतिपादन उस प्रकार से करना चाहिए, जिससे स्वयं में और सुनने वालों में अपरिग्रह की भावना विकसित हो । इस विषय में यह भी जानो-धर्मतस्व के प्रतिपादन में सम्यकू विवेक करना चाहिए । विवेक के अभाव में हित नहीं होता । उसमें पहला है—अपने सामर्थ्य का विवेक । जो मुनि धर्मकथा करने की सब्धि से सम्पन्न है, वह आक्षेपणी, विक्षेपणी, संवेजनी और निवेदनी इन चारों प्रकार की कथाओं ( बातों या घटनाओं) का प्रतिपादन करे । जो मुनि धर्मकथा करने का अभी अभ्यास कर रहा है उसे केवल माक्षेपणी और विक्षेपणी- इन दो प्रकार की कथाओं का ही प्रतिपादन करना चाहिए उसे दार्शनिक विषयों का स्पर्श नहीं करना चाहिए। अपरिपक्व ज्ञान वाला मुनि यदि उन दार्शनिक विषयों को छूता है तो वह तद्विषयक प्राप्त प्रश्नों का समाधान नहीं कर सकता। इसलिए यह हितकर नहीं होता। १७७. के यं पुरिसे ? कंच गए ? सं० – कोयं पुरुषः ? कं च नतः ? धर्म-कथा के समय विवेक करे- 'यह पुरुष कौन है ? किस दर्शन का अनुयायी है ?', १.५१ दूसरा है— क्षेत्र का विवेक । यह क्षेत्र किस दर्शन के प्रभाव से प्रभावित है यह विवेक करके ही धर्मकया में प्रवृत्त होना चाहिए। अन्यथा हित नहीं होता, विग्रह उत्पन्न हो जाता है । 1 तीसरा है -- काल का विवेक किस समय में क्या बोलना चाहिए, इस विवेक को सामने रखकर धर्म का प्रतिपादन करना चाहिए। चौथा है-भाव-विवेक । वह साक्षात् सूत्र में बताया जा रहा है धर्मकथा के प्रसंग में यह विवेक करना चाहिए सामने श्रोता कौन है— धनी है या अधनी ? मृदु स्वभाव वाला है या कठोर स्वभाव बाला ? श्रद्धालु है या तार्किक ? जिज्ञासु है या भगवा ? इसी प्रकार यह पुरुष किस दर्शन या दार्शनिक को स्वीकार कर चलता है ? For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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