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________________ अट्ठमं अज्झयणं : विमोक्खो आठवां अध्ययन : विमोक्ष पढमो उद्देसो : पहला उद्देशक १. से बेमि-समणुण्णस्स वा असमणुण्णस्स वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा वत्थं वा पडिग्गहं वा कंबलं वा पायपुंछणं वा णो पाएज्जा, णो णिमंतेज्जा, णो कूज्जा वेयावडियं-परं आढायमाणे त्ति बेमि । सं०-अथ ब्रवीमि-समनुज्ञस्य वा असमनुज्ञस्य वा अशनं बा, पानं वा, खाद्यं वा, स्वाद्यं वा, वस्त्रं वा, प्रतिग्रहं वा, कंबलं वा, पादप्रोञ्छनं वा नो प्रदद्यात्, नो निमन्त्रयेत्, नो कुर्यात् वैयापृत्यं-परं आद्रियमाणः इति ब्रवीमि । मैं कहता हूं-भिक्षु समनुज्ञ और असमनुज्ञ मुनि को अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य, वस्त्र, पात्र, कम्बल या पादपोंछन न दे, न उन्हें देने के लिए निमंत्रित करे, न उनके कार्यों में व्याप्त हो; यह सब अत्यन्त आदर प्रदर्शित करता हुआ करे ऐसा मैं कहता हूं। भाष्यम् १-समनुज्ञस्य वा असमनुज्ञस्य वा भिक्षु समनुज्ञ अथवा असमनुज्ञ मुनि को अशन आदि न दे, न अशनादीनि न प्रदद्यात्', नापि दानार्थं निमन्त्रयेत्, न वा उन्हें देने के लिए निमंत्रित करे, न उनके कार्यों में व्याप्त हो। वह वैयाप्रत्यं कुर्यात्, परं आद्रियमाणः । 'एषोऽस्माकं धर्मः यह सब अत्यन्त आदर प्रदर्शित करता हुआ करे। वह उन्हें ससम्मान मर्यादा वा विद्यते, अतो युष्माभिः क्रोधः न करणीयः' निवेदन करे–'यह हमारा धर्म है, मर्यादा है। इसलिए आप कुपित न इति सादरं निवेदयेत् । हों (अन्यथा न मानें)। समनुज्ञः-दृष्टिलिङ्गाभ्यां सामिकः, न तु समनुज्ञ का अर्थ है-वह मुनि जो दार्शनिक दृष्टि और वेश सहभोजनेन ।' से सार्मिक-समान है, सह-भोजन से समनुज्ञ नहीं है। असमनुज्ञः-अन्यतीर्थिकः । असमनुज्ञ का अर्थ है-अन्यतीर्थिक । १. अस्य मूलमस्ति 'पाएज्ज'। चूणों भिन्नार्थो दृश्यते-- लिङ्गतो, न तु भोजनादिभिः, तस्य, तद्विपरीतस्त्वपाएज्ज तहा पादिज्ज भोइज्जा, तीयग्गहणं देसीभासाओ समनोज्ञः शाक्यादिः। असितपीतं भण्णति, जहा थक्के साहेहि वा, तहा लुक्खि- (ग) जिसके दर्शन, वेश और समाचारी का अनुमोदन तोऽपि वा वातो बुच्चति पुव्वदेसाणं, जं जस्स कप्पं फासुयं किया जा सके, वह समनुज्ञ और जिसके दर्शन, वेश अफासुयं वा तं चेव पातेंति भाति, सावसेस तेसु चेव और समाचारी का अनुमोदन न किया जा सके, वह पात्रेषु वा पक्खिवंति, एवं ताव सतमागते पावंति वा असमनुज्ञ होता है। एक जैन मुनि के लिए दूसरा भोइंति वा । (आचारांग चूणि, पृष्ठ २४९) जैन मुनि समनुज्ञ तथा अन्य दार्शनिक भिक्षु २. (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ २५० : परं आढायमाणा, असमनुज्ञ होता है। अहवा परमिति परेणं पयत्तेणं आढायमाणा, पासं मुनि के लिए यह कल्प निर्धारित है कि वह णिमंतेति वेयावडियं, जं भणितं - ण अणादरेणं, सार्मिक मुनि को ही आहार दे सकता है और अहवा परं आढायमाणेत्ति जं वा देंति तहा तेसि उससे ले सकता है, सामिक पार्श्वस्थ आदि शिथिल हत्याओ गिम्हंति, अतो आढिता भवंति। आचार वाला मुनि भी हो सकता है। मुनि उन्हें न (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र २४० : परम् - अत्यर्थ आहार दे सकता है और न उनसे ले सकता है। मादरवान् । इसलिए सामिक के साथ दो विशेषण और जोड़े ३-४. (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ २४९ : समणुष्णो दिट्ठीओ जाते हैं - सांभोगिक और समनुज्ञ (निसीहायणं लिंगाओ, सह भोयणादीहि वा समणुण्णे, अन्नहा २०४४)। कल्पमर्यादा के अनुसार जिनके साथ असमुण्णो सक्कादीणं । आहार आदि का सम्बन्ध होता है, वह सांभोगिक (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र २४० : समनोज्ञो दृष्टितो और जिनकी समाचारी समान होती है, वह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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