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________________ प्रस्तुताध्ययनस्य नामास्ति विमोक्षः अस्मिन् संबंधादीनां शरीरस्य च विमोक्षविधिर्भणितोस्ति अतोऽस्य 'विमोक्ष' इति संज्ञा कृतास्ति । अस्य अष्ट उद्देशका वर्तन्ते । तेषामधिकार इत्यमस्ति - १. असमनोशविमोक्षः । २. अकल्पिकस्य आहारादेविमोक्षः । ३. आशंकाविमोक्षः । ४. उपकरणशरीरयोविमोक्षः विधिश्च । ५. ग्लानत्वं भक्तपरिज्ञा च । ६. एकत्वं इङ्गिनीमरणं च । ७. प्रतिमाः प्रायोपगमनं च । ८. संलेखनापूर्वक अनशनविधिः ।' आमुखम् निक्षेपावसरे भावविमोक्षो द्विविधो भवति-देशविमोक्षः सर्वविमोक्षश्च कर्मद्रव्येः संयोगः सोऽस्ति बन्धः । तस्य वियोग: मोक्षः । संसारावस्थायां देश विमोक्षो भवति मोक्षावस्थायां च सर्वविमोक्षः । अनुज्ञातमरण भगवतो महावीरस्य समये धर्मसंघानां बाहुल्यमासीत् । अनेके धर्माचार्या धार्मिकाश्च स्वं स्वं धर्म परिपोषयन्तः परिपालयन्तश्च विहरन्ति स्म। परस्परं समागमः वार्तालापश्च मुक्त आसीत्। निर्यथानां आचार: घोरः, बहूनां च धार्मिकाणामाचारस्तदपेक्षया सुखपूर्णः आसीत् । नवप्रव्रजितानां सुखसुविधा अर्थयमाणानां च तत्र सहजमाकर्षणं भवति, नानावादानां च संघट्टे ते विप्रतिपन्ना अपि भवन्ति । एतां स्थिति प्रत्यवेक्ष्य सूत्रकारेण असमनोशविमोक्षस्य निर्देशः कृतः हिंसा अदत्तादानं मिथ्यावादश्च यत्र वर्तते तस्य विमोक्ष मुनिना अवश्यं कर्तव्यः । । Jain Education International मिथ्यावादस्य प्रसङ्गे सूत्रकारेण अनेकेषां वादानामुल्लेखः कृताः । ते वादा निरपेक्षमेकान्तं प्रतिपन्ना अतस्तेषां प्रावादुकानां धर्मः न स्वाख्यातः न च सुप्रज्ञप्तो भवति । अनेन इति फलितं भवति स एव धर्म स्वाख्यातः सुप्रज्ञप्तश्च भवति यत्रास्ति सम्यग् एकान्तः अनेकान्तो - वा । १. आचारांग निर्युक्ति, गाथा २५२-२५६ । प्रस्तुत अध्ययन का नाम है 'विमोक्ष' । इसमें संबंध आदि के तथा शरीर के विमोक्ष (विसर्जन) की विधि बतलाई गई है, इसलिए इस अध्ययन का नाम 'विमोक्ष' है। इसके आठ उद्देशक हैं। उनका अर्थाधिकार इस प्रकार है १. असमनोज्ञ - अन्यतीथिकों का परिहार । २. अकल्पनीय आहार आदि का परित्याग । ३. आशंका का परिहार । ४. उपकरण और शरीर का विमोक्ष तथा अनुज्ञात मरणविधि का निर्देश । ५. ग्लानत्व और भक्तपरिज्ञा अनशन । ६. एकत्व और इंगिनीमरण अनशन । ७. प्रतिमाएं और प्रायोपगमन अनशन । ८. सेखनापूर्वक अनसनविधि । निक्षेप के प्रसंग में भावविमोक्ष के दो प्रकार हैं देशविमोक्ष और सर्वविमोक्ष आत्मा के साथ कर्मद्रव्यों का जो संयोग है, वह है बंध। उसका वियोग होना है मोक्ष । संसारी अवस्था में देश-विमोक्ष होता है और मोक्ष अवस्था में सर्वविमोक्ष होता है। भगवान् महावीर के समय में धर्मसंघों की बहुलता थी 1 अनेक धर्माचार्य और ग्रामिक अपने-अपने धर्मों का परिपोषण और परिपालन करते हुए विहण कर रहे थे। उनका पारस्परिक मिलन और वातनाप मुक्त या निर्धयों का आभार पोर था। बहुत से धार्मिकों का आचार निर्ग्रन्थों की अपेक्षा सुविधाजनक था। नवदीक्षित और सुखसुविधा की आकांक्षा रखने वालों का उस ओर सहज आकर्षण होता है । अनेक वादों के सघन परिचय से वे व्यक्ति विप्रतिपन्न -- विपरीत विचार वाले भी हो जाते हैं। इस स्थिति को देखकर सूत्रकार ने असमनोज्ञ के परिहार का निर्देश किया है जहां हिंसा, दत्तावान और मिथ्यावाद है, उसका परिहार मुनि को अवश्य करना चाहिए। है मिथ्यावाद के प्रसंग में सूत्रकार ने अनेक वादों का उल्लेख किया वे बाद निरपेक्ष एकान्त को स्वीकार करते हैं, इसलिए उनके प्रावादुकों - दार्शनिकों का धर्म न सु-आख्यात है और न सु-प्रज्ञप्त है। इससे यह फलित होता है - यही धर्म सु-आख्यात और सु-प्रज्ञप्त होता है जहां सम्यग एकान्त अथवा अनेकान्त है। २. आयारो, ८१३८ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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