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________________ लि. २०४ आचारांगभाष्यम् हेतुत्वाद् वा द्रव्यसम्यक् ।' जिसके लिए उस रथ का निर्माण किया गया उसे रथ की सुंदर और शीघ्र निर्मिति होने के कारण समाधान मिला, - इसलिए वह 'द्रव्य-सम्यक्' है। २. संस्कृतम्-पटादे: अवयवानां संस्करणं पुनः २. संस्कृत-वस्त्र आदि के अवयवों को संस्कारित करना और उनका नवीनीकरणं च संस्कृत-द्रव्यसम्यक् । पुनः नवीनीकरण करना 'संस्कृत द्रव्यसम्यक्' है। ३. संयुक्तम्-गुणान्तराधानाय द्वयोर्द्रव्ययोः ३. संयुक्त-दो भिन्न-भिन्न द्रव्यों के संयोग से भिन्न गुण का निर्माण संयोगः पयःशर्करयोरिव कर्तुरुपभोक्तुर्वा मनःप्रीत्यै होता है। जैसे-दूध के साथ चीनी का संयोग होने पर भवति इति संयुक्तद्रव्यसम्यक । तविपरीतं तिलदध्नोः कर्ता और उपभोक्ता-दोनों का मन प्रसन्न होता है। यह संयोगः विरोधित्वात् असम्यक् भवति । 'संयुक्त द्रव्यसम्यक्' है। इसके विपरीत तिल और दही का संयोग विरोधी होने के कारण, 'असम्यक्' होता है। ४. प्रयुक्तम्-यस्य यद् द्रव्यं प्रयुक्तं सत् लाभहेतु- ४. प्रयुक्त-जिसके जिस द्रव्य के प्रयुक्त होने पर लाभ का हेतु बनता त्वात् आत्मनः समाधानाय भवति तत् प्रयुक्तद्रव्यसम्यक्, है, वह स्वयं के समाधान-समाधि के लिए होता है। वह यथा रुग्णस्य औषधं, बुभुक्षितस्य ओदनं, तृष्णातुरस्य 'प्रयुक्त द्रव्य-सम्यक्' है। जैसे रोगी के लिए दवा, भूखे के पानम्। लिए भोजन और प्यासे के लिए पानी । ५. त्यक्तम्-यत् त्यक्तं सत् सम्यक् भवति तत् ५. त्यक्त-जो छोड़े जाने पर सम्यक होता है, वह 'त्यक्त द्रव्य-सम्यक्' त्यक्तद्रव्यसम्यग्, यथा भारादि। है। जैसे-भार आदि । ६. भिन्नम् -यद् भिन्नं सत् सम्यग् भवति तद् ६. भिन्न-जो भिन्न होने पर सम्यक् होता है, वह 'भिन्न द्रव्यभिन्नद्रव्यसम्यग, यथा काकादीनां समाधानोत्पत्तेः भिन्न सम्यक्' है। जैसे—काग आदि के लिए दही का फूटा हुआ दधिभाजनम् । बर्तन समाधान का हेतु होने के कारण 'भिन्न द्रव्य-सम्यक्' है । ७. छिन्नम् -यच्छिन्नं सत् सम्यग् भवति तत् ७. छिन्न-जो छिन्न होने पर सम्यक होता है, वह 'छिन्न द्रव्यछिन्नद्रव्यसम्यग, यथा अधिकमांसवणादीनां छेदः । सम्यक्' है। जैसे-बढ़े हुए मांस, व्रण आदि का छेदन । भावसम्यक् त्रिविधं भवति-दर्शनसम्यक, ज्ञान- भाव सम्यक् तीन प्रकार का होता है-दर्शनसम्यक्, ज्ञानसम्यक, चारित्रसम्यक् च। सम्यक् और चारित्रसम्यक् । सम्यग्दर्शनं विना क्रियां कुर्वाणोऽपि स्वजनादीन् सम्यग्दर्शन के बिना क्रिया करता हुआ भी तथा स्वजन परित्यजन्नपि मिथ्यादृष्टिर्न सिद्धयति ।' जयाचार्येण आदि का परित्याग करता हुआ भी मिथ्यादृष्टि जीव सिद्ध नहीं मिथ्यादृशां मोक्षमार्गस्य देशाराधकत्वं स्वीकुर्वतापि होता। श्रीमज्जयाचार्य ने मिथ्यादृष्टि को मोक्षमार्ग का देशप्रस्तुतविषयस्य पुष्टिः कृतास्ति । तस्मात् सम्यक्त्वार्थं आंशिक आराधक मानते हुए भी प्रस्तुत मत की पुष्टि की यत्नो विधेयः । अहिंसाधर्मः शाश्वतो धर्मः। अयं है। इसलिए सम्यक्त्व प्राप्ति का प्रयत्न करना चाहिए । अहिंसा आचारपक्षः । अस्य पृष्ठभूमौ सम्यक्त्वं वर्तते। यावत् धर्म शाश्वत धर्म है। यह आचारपक्ष है । इसकी पृष्ठभूमि में सम्यक्त्व षड़जीवनिकायं प्रति श्रद्धा सम्यग्बोधश्च न भवति है। जब तक षड्जीवनिकाय के प्रति श्रद्धा और सम्यग् बोध नहीं तावत् अहिंसाधर्मस्य अनुशीलनस्य प्रश्नोऽपि नोद्- होता तब तक अहिंसा धर्म के अनुशीलन का प्रश्न ही उत्पन्न नहीं भवति । अत एवोक्तम्-'समिच्च लोयं खेयह पवेइए।" होता । इसीलिए कहा है-'आत्मज्ञ अर्हतों ने जीव-लोक को जानकर 'तच्चं चेयं तहा चेयं, अस्सि चेयं पवुच्चति ।" अहिंसा धर्म का प्रतिपादन किया है।' 'यह अहिंसा धर्म तथ्य है। यह वैसा ही है । यह इस अर्हत् प्रवचन में सम्यग निरूपित है।' १. आचारांग वृत्ति, पत्र १५९ । कुणमाणोऽवि निवित्ति परिच्चयंतोऽवि सयणधणभोए। २. आचारांग नियुक्ति, गाथा २१८ : दितोऽवि दुहस्स उरं मिच्छविट्ठी न सिज्मइ उ॥ तिविहं तु भावसम्म सण नाणे सहा चरित्ते य । ४. आराधना, अष्टम द्वार, गाथा ४ : वंसणचरणे तिविहं नाणे दुविहं तु नायव्वं ॥ जे समकित विण म्है, चारित्र नी किरिया रे । ३. वही, गाथा २१९, २२० बार अनंत करी, पिण काज न सरिया रे॥ कुणमाणोविय किरियं परिच्च यंतीवि सयणधणभोए । ॥ भावे भावना। वितोऽवि वुहस्स उरं न जिणइ अंधो पराणीयं ॥ . ५. आयारो, ४।२। ६. वही, ४॥४॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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