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अ०२. लोकविचय, उ० ३. सूत्र ५०-५५
१०५ ५३. समिते एयाणुपस्सी।
सं०-समितः एतदनुदर्शी। सम्यग्दर्शी पुरुष इसको देखता है ।
भाष्यम् ५३--समित:-इष्टानिष्टगवेषणया समधि- समित अर्थात् इष्ट और अनिष्ट की गवेषणा के द्वारा तत्व को गततत्वः पुरुषः एतत् कर्मविपाकमनुपश्यति
जानने वाला सम्यग्दर्शी पुरुष इस कर्म-विपाक को देखता है५४. तं जहा-अंधत्तं बहिरत्तं मूयत्तं काणत्तं कुंटतं खुज्जत्तं वडभत्तं सामत्तं सबलत्तं ।
सं०-तद् यथा-अन्धत्वं बधिरत्वं मूकत्वं काणत्वं कुण्ट त्वं कुब्जत्वं वडभत्वं श्यामत्वं शबलत्वम् । जैसे—कोई अंधा है और कोई बहरा, कोई गूंगा है और कोई काना, कोई लूला है और कोई बौना, कोई कुबड़ा है और कोई कोढी तथा कोई श्वेत कुष्ठ वाला है।।
भाष्यम् ५४---कर्मविपाकस्य निदर्शनमिदम्, यथा--- यह कर्म-विपाक का निदर्शन है, जैसे-कहीं अन्धापन, क्वचिद् अन्धत्वं, बधिरत्वं, मूकत्वं, काणत्वं, कुण्टत्वं- बहरापन, गूंगापन, काणापन, लूलापन, कुबड़ापन और बौनापन है। कुणित्वं, कुब्जत्वं -वामनत्वम् । कुब्जशब्दस्य अर्थद्वयं 'कुन्ज' शब्द के दो अर्थ प्राप्त होते हैं-पृष्ठग्रंथि का बाहर निकलना लभ्यते---विनिर्गतपृष्ठग्रन्थिः ह्रस्वश्च । चूणों 'खुज्जो- और ठिगना । चूणि में 'खुज्ज' वामन के अर्थ में व्याख्यात है । वृत्ति वामणो' इति व्याख्यातमस्ति ।' वृत्तौ कुब्जत्वं वामन- में कुब्जत्व वामन का लक्षण है। यहां वामन शब्द खर्व के अर्थ में है। लक्षणमिति । अत्र बामनशब्देन खर्वत्वं सूचितमस्ति । खर्व का अर्थ है-बौना । 'वडभ' शब्द के संदर्भ में कुब्ज शब्द का यही 'खर्वः' इति बौना। वडभशब्दस्य सन्दर्भ कुब्जस्य अर्थ संगत लगता है। संस्थान के प्रकरण में कुब्ज-संस्थान का ऐसा एष एव अर्थः संगतोऽस्ति। संस्थानप्रकरणे कुब्ज- ही अर्थ प्राप्त होता है-'अधस्तनकाय का वाचक है 'मडभ' । पर, हाथ, संस्थानस्य ईदश एव अर्थो लभ्यते खुज्जोत्ति। अधस्तन- मस्तक और ग्रीवा-ये अधस्तनकाय हैं । ये अवयव शास्त्रोक्त शरीरकायमडभम्, इह अधस्तनकायशब्देन पादपाणि- लक्षणों के प्रमाण के अनुसार नहीं होते तथा शेष अवयव प्रमाणोपेत होते शिरोग्रीवमुच्यते, तद् यत्र शरीरलक्षणोक्तप्रमाणव्यभि- हैं, उसे 'कुब्ज' कहा जाता है।' वडभत्व का अर्थ है--पृष्ठग्रंथि का बाहर चारि, यत् पुनः शेषं तद् यथोक्तप्रमाणं तत्कुब्ज मिति ।" निकलना । श्यामत्व का अर्थ है-कोढ का रोग तथा शबलत्व का अर्थ वडभत्वं--विनिर्गतपृष्ठग्रन्थित्वं, श्यामत्वं-कुष्ठित्वं', है-सफेदकोढ । शबलत्वं-श्वेतकुष्ठित्वम् ।। ५५. सहपमाएणं अणेगरूवाओ जोणीओ संधाति, विरूवरूवे फासे पडिसंवेदेइ।
सं०-स्वप्रमादेन अनेकरूपाः योनी: संदधाति, विरूपरूपान् स्पर्शान् प्रतिसंवेदयते । पुरुष अपने ही प्रमाद से नानारूप योनियों में जाता है और विविध प्रकार के आघातों का अनुभव करता है।
भाष्यम् ५५-कर्मविपाकगवेषणां कुर्वाणः एतदपि कर्मविपाक की गवेषणा करने वाला इस सचाई को भी देखता सत्यमनुपश्यति- मनुष्यः स्वप्रमादेन अनेकरूपाः योनी: है-मनुष्य अपने प्रमाद से नानारूप योनियों का संधान करता है और सन्धत्ते । नानाविधान स्पर्शान्-आघातान् प्रतिसंवेदयते। विविध प्रकार के माघातों का अनुभव करता है।
पियं? कि अणिठं ? जं जस्स अप्पितं तं ण कायव्वं । (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र ११८ : प्रत्युपेक्ष्य-पर्यालोच्य विचार्य कुशाग्रीयया शेमुष्या जानीहि-अवगच्छ, कि जानीहि ? सातं सुखं तद् विपरीतमसातमपि जानीहि, कि च कारणं सातासातयोः ? एतज्जानीहि, किं चाभिलषन्त्यविगानेन प्राणिन इति । १. आचारांग चूणि, पृष्ठ ६५ । २. आचारांग वृत्ति, पत्र १०८ ।
३ अभिधानचिन्तामणि, ३।१३०, ६।६५ । ४. स्थानांग वृत्ति, पत्र ३३९ । ५ आचारांग चूणि, पृष्ठ ६५ : सामो--कुट्ठी। ६. (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ ६५ : सबलत्तं-सिति ।
(ख) आचारांग वृत्ति, पत्र १०८ : शबलत्वं श्वित्रलक्षणम् । ७. अत्रापि 'सह' पदं स्ववाचकं दृश्यते । द्रष्टव्यम्-आयारो,
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