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पण
अ० १. शस्त्रपरिज्ञा, उ० ३. सूत्र ५४-५६ १. उत्सेचनम् --कृपादे: कोशादिनोत्क्षेपणम् ।'
१. उत्सेचन-कुए आदि से बाल्टी आदि के द्वारा पानी
निकालना। २. गालनम् --धनमसणवस्त्रेण ।'
२. गालन-सघन और स्निग्ध वस्त्र से जल छानना। ३. धावनम्-वस्त्रपात्रादीनां प्रक्षालनम् ।
३. धावन-वस्त्र, पात्र आदि का प्रक्षालन ।। ४. स्वकायशस्त्रम् -- नद्या जलं तडागजलस्य।
४. स्वकायशस्त्र-नदी का पानी तालाब के पानी का शस्त्र । ५. परकायशस्त्रम् -- मृत्तिकास्नेहक्षाराग्निप्रभृतयः । ५. परकायशस्त्र--मिट्टी, तेल, क्षार और अग्नि आदि । ६. तदुभयशस्त्रम्-जलमिथिता मृत्तिका जलस्य । ६. तदुभयशस्त्र-जल मिश्रित मिट्टी जल का शस्त्र ।
चणिकारेणान्यानि शस्त्राण्यपि निर्दिष्टानि-वर्ण- चूर्णिकार ने अन्य शस्त्रों का भी निर्देश किया है-वर्ण, रस, रसगंधस्पर्शाः शस्त्रम् । यथा-वण्णओ उण्होदगं अग्गि- गंध और स्पर्श शस्त्र हैं। जैसे-अग्नि-पुद्गलों के अनुप्रविष्ट होने से पूग्गलाणगतं इसित्ति कविलं भवति, गंधतो धमगंधि य, गरम पानी वर्ण से थोड़ा कपिल (पीला-मिश्रित लाल) हो जाता है। जत्थ गंधो तत्थ रसोवि, विरसं वा रसएणं, फरिसओ गंध से वह धूमगन्ध वाला बन जाता है। जहां गंध होती है वहां रस उण्हं, किचि उण्हभूयपि न अचेयणं जहा अगव्वत्तो दंडो। भी होता है । रस से वह पानी विरस बन जाता है । स्पर्श से वह उष्ण
होता है । जल थोड़ा गर्म होने पर भी अचेतन नहीं होता। जिसमें 'अनुवृत्तदंड' (उकाला) न आया हो, जो पूरा उबला हुआ न हो वह
सजीव ही होता है। सभावेण महातवोतीरोदगं सचेयणं, जया सीतलीभूतं महातप' नामक प्रपात के तट का गरम पानी स्वभाव से हो तदा सभावपरिच्चाएण अचेयणं ।
सचेतन होता है। जब वह ठंडा होता है तब वह अपने स्वभाव को
छोड़कर अचेतन बन जाता है। लवणमहरअंबउदगाणं अण्णोणं सत्थं । दुखिभगंध च लोना, मीठा और अम्ल पानी परस्पर एक दूसरे के शस्त्र होते पाएणं अचित्तं भवति ।
___ हैं । दुर्गन्ध युक्त पानी प्रायः अचित्त होता है। भगवत्यां अस्मिन् प्रस्रवणे उष्णयोनिकजीवाना- भगवती में यह उल्लेख प्राप्त होता है कि इस प्रपात में उष्णमुत्पत्तेरुल्लेखोस्ति । किन्तु तस्य जलस्य शीतावस्थायां योनिक जीवों की उत्पत्ति होती है। किन्तु उस जल के शीतल हो अचित्तत्वस्य नास्ति उल्लेखः ।
जाने पर वह अचित्त हो जाता है, ऐसा उल्लेख नहीं है। ५८. अदुवा अदिण्णादाणं ।
सं०-अथवा अदत्तादानम् । अथवा वह अदत्तादान है।
भाष्यम ५८-तस्मिन् समये परिव्राजका अदत्तजल- उस समय परिव्राजक अदत जल का उपभोग नहीं करते थे। स्योपभोगं नाकार्षः। ते जलाशयस्वामिनोऽनुमति वे जलाशय के स्वामी से अनुमति लेकर उस का उपभोग करते थे। वे गहीत्वा तस्योपभोग कर्तार आसन् । तेऽन्वभवन्, वयं अनुभव करते थे 'हम अदत्तादान के भागी नहीं हैं। इस विषय में जैन नादत्तादानभागिनः। अस्मिन् विषये जैनश्रमणास्तर्क श्रमणों ने यह तर्कणा की कि क्या अप्कायिक जीवों ने भी अपने प्राणों प्रायच्छन्-किमप्कायिकजीवैरपि स्वप्राणापहारानुमतिः के अपहरण की अनुमति दी है ? यदि नहीं तो सचित्त जल के उपभोग प्रदत्ता? यदि न प्रदत्ता, तदानीं सचित्तस्य जलस्योप- से होने वाला उनका प्राणापहरण क्या अदत्तादान नहीं है ? इस तर्क भोगेन तेषां प्राणापहार: कि नादत्तादानम् ? एतं तर्क को सूत्रकार स्वयं बतलाते हैं--सचित्त जल का उपभोग अदत्तादान है। सूत्रकारः साक्षात् प्रवक्ति-सचित्तस्य जलस्योपभोगः मुनि के लिए वह उचित नहीं है। अदत्तादानं विद्यते । मुनेः कृते तन्नोचितम् । ५६. कप्पइ णे, कप्पइ णे पाउ, अदुवा विभूसाए ।
सं०-कल्पते नः, कल्पते नः पातुं, अथवा विभूषायै । १.२. अनयोविधिरस्ति गवेषणाया विषयः ।
जोणिया जीवा य पोग्गला य उदगत्ताए वक्कमति विउपक३. आचारांग चूणि, पृष्ठ २७,२८ ।
मंति चयंति उववज्जति । ४. अंगसुत्ताणि २, भगवई २।११३ : तत्य णं बहवे उसिण- ५. अंगसुत्ताणि ३, ओवाइयं, सूत्र १११-११७ ।
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