________________
आमुखम्
प्रस्तुताध्ययनस्य नामास्ति लोकविचयः। चूणि- प्रस्तुत अध्ययन का नाम है-'लोकविचय'। चूर्णिकार ने 'लोक' कारेण 'लोक' पदस्यार्थः कषायलोक इति कृतः ।' 'लोक' पद का अर्थ 'कषायलोक' किया है । 'लोक' पद के अनेक अर्थ होते हैं। पदस्य अनेके अर्था विद्यन्ते । तेन नासंगतोऽयमर्थः। इसलिए चूर्णिकार द्वारा कृत यह अर्थ असंगत नहीं है। प्रस्तुत अध्ययन प्रस्तुताध्ययनस्य अनुशीलनत: लोभविचय' इतिनामापि के अनुशीलन से यह सहज स्फुरित होता है कि इस अध्ययन का नाम सहज स्फूरति । प्रथमाध्ययने अहिंसा प्रतिपादितास्ति। 'लोभविचय' भी हो सकता है । पहले अध्ययन में अहिंसा का प्रतिअस्मिन् अपरिग्रहस्य प्रतिपादनं स्वाभाविकं वर्तते। पादन हुमा है। इस अध्ययन में अपरिग्रह का प्रतिपादन होना स्वाभा'ममायमाणाणं 'परिगिज्म' इति पदाभ्यामपि 'लोभ- विक है । 'ममायमाणाणं' तथा 'परिगिज्म'-इन दो पदों से भी विचय' पदस्य सम्भावनायाः पुष्टिर्जायते । स्थानांगेऽप्यु- 'लोभविचय' पद की संभावना पुष्ट होती है। स्थानांग में भी कहा क्तमस्ति आरम्भपरिग्रहाभ्यां जीवा धर्मश्रवणादिकं न है-आरम्भ और परिग्रह से जीव धर्म-श्रवण आदि को प्राप्त नहीं लभन्ते, अनारम्भापरिग्रहाभ्यां च ते प्राप्नुवन्ति तत्। करते । अनारम्भ और अपरिग्रह से वे उसे उपलब्ध होते हैं।
निर्यक्तिकारेण 'विजय' पदं व्याख्यातम् । अस्य नियुक्तिकार ने 'विजय' पद की व्याख्या की है। इस पद का पदस्य 'विचय' इतिरूपमपि संगतमस्ति । विचयस्य 'विचय' रूप भी संगत है। प्राकृत भाषा में "विचय' का 'विजय' 'विजय' इतिरूपं प्राकृते संभवति, यथा-आज्ञाविचयस्य रूप बन जाता है, जैसे-आज्ञाविचय का प्राकृतरूप है 'आणाविजय' 'आणाविजय" इत्यादि। प्रस्तुताध्ययनस्य षडद्देशका आदि । प्रस्तुत अध्ययन के छह उद्देशक हैं। नियुक्तिकार ने उनके वर्तन्ते । नियुक्तिकारेण तेषां विषयनिर्देश: कृतः, विषयों का निर्देश इस प्रकार किया है, जैसेयथा१. स्वजने अभिष्वंगो न कार्यः ।
१. स्वजन में आसक्ति नहीं करनी चाहिए। २. संयमे अदृढत्वं न कार्यम, विषयकषायादौ च २. संयम में शिथिलता नहीं करनी चाहिए । विषय, कषाय आदि अदृढत्वं कार्यम् ।
में शिथिलता करनी चाहिए। ३. जात्यादीनां मदो न कार्यः, जात्यादिहीनेन वा ३. जाति आदि का मद नहीं करना चाहिए। जाति आदि से हीन
शोको न कार्यः तथा अर्थस्य असारता व्यक्ति को शोक नहीं करना चाहिए तथा अर्थ-धन की प्रतिपत्तव्या।
असारता स्वीकार करनी चाहिए। ४. भोगेषु अभिष्वंगो न कार्यः ।
४. भोगों में आसक्ति नहीं करनी चाहिए। ५. संयमयात्रा निर्वाहाय कनिश्रया विहर्तव्यम् । ५. संयम-यात्रा के निर्वाह के लिए लोकनिया (गहस्थ के आश्रय)
___ में विहरण करना चाहिए । ६. सर्वत्र ममत्वपरित्यागः कार्यः ।
६. सर्वत्र ममत्व का वर्जन करना चाहिए। एतानि सर्वाण्यपि अपरिग्रहस्य विषयवस्तूनि ।
ये सारे अपरिग्रह के विषय हैं । प्रस्तुताध्ययने परिग्रहस्य विषये महत्त्वपूर्णानि प्रस्तुत अध्ययन में परिग्रह के विषय में महत्त्वपूर्ण सूत्र प्रतिसूत्राणि वर्तन्ते
पादित हैं१. आचारांग चूणि, पृष्ठ ४२ : कसायलोगविजयो कायव्यो। ६. अंगसुत्ताणि १, ठाणं, ४१६५ । २. आयारो. २०५७ ।
७. आचारांग नियुक्ति, गाथा १७२ : ३. वही, २०५८ ।
सपणे य अदढत्तं बीयगंमि माणो अ अत्थसारो अ। ४. अंगसुत्ताणि १, ठाणं, २१४१,५२
भोगेसु लोगनिस्साइ लोगे अममिज्जया चेव ॥ ५. आचारांग नियुक्ति, गाथा १७५ :
लोगस्स य निक्खेवो, अट्ठविहो छम्बिहो उ विजयस्स । भावे कसायलोगो अहिगारो तस्स विजएणं ॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org