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________________ आचारांगभाष्यम् 'जे ममाइय-मति जहाति, से जहाति ममाइयं ।” 'जो परिग्रह की बुद्धि का त्याग करता है, वही परिग्रह को त्याग सकता है।' 'एत्थ तवो वा, दमो वा, णियमो वा दिस्सति ।" 'परिग्रही पुरुष में न तप होता है, न शांति होती है और न नियम ।' 'परिगहाओ अप्पाणं अवसक्केज्जा। 'साधक परिग्रह से अपने आपको दूर रखे।' अस्मिन्नध्ययने 'लोगविपस्सी' इतिपाठः विशेष इस अध्ययन में 'लोगविपस्सी' यह पद विशेष ध्यान आकृष्ट ध्यानमाकर्षति । अनेन पदेन विपश्यनाध्यानस्य प्रक्रिया करता है । इस पद से 'विपश्यना ध्यान' की प्रक्रिया सूचित की गई सूचिता अस्ति । 'आयतचक्नु' इतिपदेन अनिमेष- है। 'आयतचक्खू' इस पद के द्वारा 'अनिमेषप्रेक्षा' अथवा 'नाटक' प्रेक्षायाः त्राटकस्य वा ध्यानविधिनिर्दिष्टः। ध्यान की विधि निर्दिष्ट की गई है। भगवतो महावीरस्य साधनायाः सारमस्ति अप्रमादः। भगवान् महावीर की साधना का सार है-अप्रमाद । इस तस्मिन् विषये अन्तर्वेधी निर्देशोऽस्मिन् लभ्यते विषय का अन्तर्वेधी निर्देश प्रस्तुत अध्ययन में प्राप्त होता है'उदाहु वीरे-अप्पमादो महामोहे।" महावीर ने कहा-'साधक विषय-विकार में प्रमत्त न हो ।' 'अलं कुसलस्स पमाएणं।" 'कुशल प्रमाद न करे।' भगवान् महावीर आत्मकर्तृत्वस्य स्वातन्त्र्यस्य च भगवान् महावीर आत्मकतृत्व और स्वतंत्रता के महान् प्रवक्ता महान प्रवक्ता आसीत । अत एव भगवतो दर्शने पश्यकस्य थे। इसीलिए भगवान् द्वारा निर्दिष्ट दर्शन में पश्यक या द्रष्टा का द्रष्टा विशिष्टं महत्त्वम् । प्रोक्तं भगवता-त्वं पश्य न विशिष्ट महत्व है। भगवान् ने कहा-'तुम स्वयं देखो, केवल मानो केवलं मन्यस्व।" ही मत ।' अध्यात्मसाधनाक्षेत्रे प्रतिपक्षभावनाया: सिद्धान्त: अध्यात्म साधना के क्षेत्र में प्रतिपक्ष भावना का सिद्धांत अस्ति अनुभवभूमिकायां सम्मतः। जैनमनोविज्ञाने सन्ति अनुभव की भूमिका में सम्मत है। जैन मनोविज्ञान के अनुसार मौलिक चतस्रो मौलिक्यो मनोवृत्तयः-क्रोधः, मानः, माया, मनोवृत्तियां चार हैं--क्रोध, मान, माया और लोभ । प्रतिपक्ष भावना लोभश्च । आसां परिष्कार: प्रतिपक्षभावनया कतु के द्वारा इनका परिष्कार सरलता से किया जा सकता है। लोभ की सशकः। लोभः सर्वाधिको जटिलः । न चासौ लाभेन मनोवृत्ति सबसे अधिक जटिल है। यह लाभ से उपशांत नहीं होती। उपशमयितं शक्यः । मनुष्ये यथा लोभस्य मनोवृत्तिस्तथा मनुष्य में जैसे लोभ की मनोवृत्ति है वैसे अलोभ का भाव भी उसमें विद्यमान अलोभस्य भावोऽपि तस्मिन् विद्यमानोऽस्ति । कर्म- है। कर्मसिद्धांत के अनुसार मोहनीय कर्म के औदयिक भाव से लोभ सिद्धान्तानसारेण मोहनीयकर्मणः औदयिकभावसंभवो उत्पन्न होता है और उसके क्षायोपशमिक भाव से अलोभ उत्पन्न होता लोभः, मोहनीयकर्मणः क्षायोपशमिकभावजनितश्च है । प्रत्येक प्राणी में जैसे मोहनीयकर्म का औदयिक भाव होता है, वैसे अलोभः । प्रत्येकस्मिन् प्राणिनि यथा। मोहनीयकर्मणः ही उसमें क्षायोपशमिक भाव भी होता है। प्रमाद की अवस्था में औयिको भावो विद्यते तथा क्षायोपशमिको भावोऽपि क्षायोपशमिक भाव निष्क्रिय होता है और औदयिक भाव सक्रिय । वियते सति प्रमादे क्षायोपशमिको भावो निष्क्रियो अप्रमाद की अवस्था में क्षायोपशमिक भाव सक्रिय होता है और भवति, औदयिकभावश्च सक्रियो भवति । सति अप्रमादे मौदयिक भान निष्क्रिय । आकाश-दर्शन और नक्षत्र-दर्शन के लिए च क्षायोपशमिको भावः सक्रियो भवति, औदयिकभावश्च पानी पर छाए हुए सेवाल को हाथ से हटाना जरूरी होता है । हाथ निष्क्रियो भवति । शैवालं विनेतं हस्ते व्याप्रियमाणं का प्रयत्न बंद होने पर सेवाल पुनः पानी पर एकाकार रूप में छा आकाशदर्शनं नक्षत्रदर्शनं च संभवति । विरते च हस्ते जाता है और आकाश-दर्शन अवरुद्ध हो जाता है। शैवालः एकाकारो भवति, अवरुणद्धि चाकाशदर्शनम् । भगवत: प्रवचनस्य प्रथमो निष्कर्षोस्ति अप्रमादस्य भगवान् महावीर के प्रवचन का पहला निष्कर्ष है-अप्रमाद विकास:, तात्पर्यार्थ क्षायोपशमिकभावस्य प्रयोगः। का विकास, तात्पर्यार्थ में क्षायोपशमिक भाव का प्रयोग। १. आयारो, २।१५६ ॥ २. वही, २०५९। ३. वही, २१११७॥ ४. वही, २२१२५॥ ५. वही, २१९४॥ ६. वही, २२९५ ७. वही, २१९७,९९। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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