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________________ २५८ 1 त्रिपातिनो भवन्ति, आजीवनं स्वीकृतं धर्ममनुपालयन्ति केचित् स्वस्थवीर्या भवन्ति ये पूर्वमुरषाय पश्चानि पतन्ति न स्वीकृतधर्मस्य निर्वाहं कुर्वन्ति पुरुषाः अहिंसा धर्म प्रति अवीर्या भवन्ति ते न पूर्व उत्तिष्ठन्ते न च न च पश्चानिपतन्ति ते गृह एव तिष्ठन्ति । केचित् , 1 ४३. सेवि तारिसए लिया, जे परिणाय लोगमणुस्सिओ । सं०] सोऽपि तादृशः स्यात् यः परिज्ञाय लोकमनुचितः । जो भिक्षु लोक परिग्रह का त्याग कर फिर उसका आश्रय लेता है, वह भी वैसा - गृहवासी जैसा हो जाता है। भाष्यम् ४३ - स भिक्षुरपि तादृश: - गृहवासिसदृशः स्यात् यः परिग्रहं परिज्ञाय - प्रत्याख्याय पुनरपि तस्य आश्रयणं करोति । भिक्षोः लक्षणत्रयं विद्यते -संयोगविप्र मुक्तत्वं अनगारएवं भिक्षणशीलत्वं च गृहस्थस्यापि प्रतिपक्षरूपा लक्षणत्रयी लभ्यते - संयोगकरणं, गृहवासः रसवती च सति परिग्रहे संयोगादयो भवन्ति । भिक्षरपि यदि परियही स्यात् तदा तस्य गृहस्थसंबंधिषु त्रिष्वपि लक्षणेषु प्रवृत्तिः संजायते भिक्षुगृहस्थयोर्मध्ये एषा भेदरेखा-य: अपरिग्रही स एव भिक्षुः, यश्च परिग्रही ससाधुवेषेऽपि गृहस्थ एव । आचारांग भाष्यम् , हैं और पश्चात् नहीं गिरते जीवन पर्यन्त स्वीकृत धर्म का अनुपालन करते हैं कुछ व्यक्ति स्वल्प शक्ति वाले होते हैं, वे पहले उठते हैं और बाद में गिर जाते हैं। वे स्वीकृत धर्म का निर्वाह नहीं कर पाते। कुछ पुरुष महिला धर्म की प्रतिपालना में शक्तिशून्य होते हैं वे न पहने उठते हैं और न फिर गिरते हैं। वे घर में ही रहते हैं। ४४. एयं निवाय मुणिणा पवेदितं - इह आणाकंखी पंडिए अणिहे, पुण्वावर रायं जयमाणे, सया सीलं संपेहाए, सुणिया भवे अकामे अभं । सं० - एतद् निदाय मुनिना प्रवेदितम् इह आज्ञाकांक्षी पंडितः अनिहतः पूर्वापररात्रं यतमानः सदा शीलं संप्रेक्ष्य श्रुत्वा भवेद् अकाम: अझञ्झ । भाष्यम् ४४ - एतत् परिणामवैचित्र्यं निदाय-ज्ञात्वा मुनिना प्रवेदितम् इह जिनप्रवचने शरीरविषयेषु अरक्तः सन् आज्ञां काङ्क्षत् । पण्डितः - पापाद् विरतो विषयावर निहतः अस्नेहो वा भवेत् स पूर्वरात्र १. कोई साधक सिंहवृत्ति से निष्क्रमण करता है और उसी वृत्ति से साधना करता है तथा कोई साधक सिंहवृत्ति से निष्क्रमण करता है और शृगालवृत्ति वाला हो जाता है। ये दो विकल्प अभिनिष्क्रमण के हैं। वह भिक्षु भी गृहवासी के समान है जो परिग्रह का प्रत्याख्यान कर पुनः उसका आश्रय लेता है । भिक्षु के तीन लक्षण हैं - (१) संयोग से विप्रमुक्त (२) अनगारता (३) भिक्षणशीलता । गृहस्थ के भी इसके प्रतिपक्ष रूप तीन लक्षण हैं- (१) संयोग-करण (२) गृहवास (३) भोजन पकाना । परिग्रह होने पर ये तीनों होते हैं । भिक्षु भी यदि परिग्रही होता है तो गृहस्थ सम्बन्धी इन तीनों लक्षणों में उसकी प्रवृत्ति होती है। भिक्षु और गृहस्थ के बीच यह भेदरेखा है-जो अपरिग्रही है वही भिक्षु है जो परिग्रही है यह साधुवेश में भी गृहस्थ ही है । इस को जान कर भगवान् ने कहा- जिनशासन में प्रव्रजित पंडित मुनि आज्ञा में रुचि रखे, कषाय से आहत न हो, रात्रि के प्रथम और अन्तिम भाग में स्वाध्याय और ध्यान करे, सदा शील का अनुपालन करे, (लोक में सारभूत) तत्त्व को सुन कर काम और कलह से मुक्त बन जाए। धन्य और शालिभद्र भगवान् महावीर के पास दीक्षित हुए। उन्होंने स्वाध्याय, ध्यान और तपस्या में साघु जीवन बिताया और अन्त में समाधि-मृत्यु का वरण किया। यह उत्थित जीवन का निदर्शन है । Jain Education International परिणामों की इस विचित्रता - विभिन्नता को जानकर भगवान् ने कहा जैन शासन में दीक्षित मुनि शरीर और विषयों के प्रति अनासक्त रह कर आज्ञा की आकांक्षा करे। वह पंडित मुनि पापों से विरत और विषय-कपायों से अनित अपराजित हो अथवा स्नेहमुक्त पुण्डरीक और कुण्डरीक दो भाई थे कुण्डरीक दीक्षित हुआ। वह रुग्ण हो गया। महाराज पुण्डरीक ने उसकी चिकित्सा करवाई । वह स्वस्थ हो गया और साथ-साथ शिथिल भी। उसने साधुत्व को छोड़ दिया। यह उत्थित होने के बाद पतित होने का निदर्शन है । १।१९) । तीसरा विकल्प गृहवासी का है। २. द्रष्टव्यम् - ४।३२ सूत्रस्य टिप्पणम् । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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