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________________ परिशिष्ट ११ : सूक्त और सुभाषित ५२७ पुरिसा! तुम मेव तुम मित्तं, कि बहिया मित्तमिच्छसि ? २६२ पुरुष ! तू ही तेरा मित्र है। फिर बाहर मित्र क्यों खोजता कम्ममूलं च जंछणं । ३२१ हिंसा का मूल कर्म है। समत्तदंसी ण करेति पावं । ३।२८ सम्यक्त्वदर्शी पाप नहीं करता । आरंमजीवी उ भयाणुपस्सी । ३३३० हिंसाजीवी मनुष्य सर्वत्र भय देखता है कामेसु गिद्धा णिचयं करेंति । ३।३१ कामासक्त व्यक्ति संचय करता है। आयंकदंसी ण करेति पावं । ३।३३ हिंसा में आतंक देखने वाला पाप नहीं करता। अग्गं च मूलं च विगिच धीरे। ३१३४ हे धीर ! तू अग्र और मूल का विवेक कर। कर्म अग्र है और राग-द्वेष मूल है। एस मरणा पमुच्चइ । ३।३६ आत्मदर्शी मृत्यु से मुक्त हो जाता है। कालखी परिव्वए। ३।३८ जीवन पर्यन्त अनुकूल और प्रतिकूल स्थितियों को सहन करता हुआ परिव्रजन कर। सच्चंसि धिति कुन्वह । ३।४० तू सत्य में धृति कर। अणेगचित्ते खलु अयं पुरिसे । ३।४२ यह पुरुष अनेक चित्तवाला है। से केयणं अरिहइ पूरइत्तए। ३।४२ वह चलनी को पानी से भरना चाहता है। णिविद दि । ३।४७ तू कामभोग के आनन्द से उदासीन बन । अणोमदंसी णिसन्ने पावेहि कम्मेहिं । ३।४८ आत्मा को देखने वाला पापकर्म का आदर नहीं करता। आयओ बहिया पास । ३।५२ स्वयं से भिन्न प्राणियों को अपनी आत्मा के समान देख । समयं तत्थुवेहाए, अप्पाणं विप्पसायए । ३१५५ समता का आचरण चित्त की प्रसन्नता का हेतु है। अणण्णपरमं नाणी, णो पमाए कयाइ वि । ३५६ ज्ञानी पुरुष आत्मोपलब्धि के प्रति क्षणभर भी प्रमाद न करे। विरागं वेहि गच्छेज्जा । ३१५७ सभी प्रकार के रूपों-पदार्थों के प्रति वैराग्य धारण कर । का अरई ? के आणंदे ? ३६१ साधक के लिए क्या अरति और क्या आनन्द ? जं जाणेज्जा उच्चालइयं, तं जाणेज्जा दूरालइयं । जं जाणेज्जा दूरालइयं, तं जाणेज्जा उच्चालइयं । ३।६३ जिसे तुम परमतत्त्व के प्रति लगा हुआ जानते हो, उसे कामनाओं से दूर हुआ जानो। जिसे तुम कामनाओं से दूर हुआ जानते हो, उसे परम तत्त्व के प्रति लगा हुआ जानो। पुरिसा! अत्ताणमेव अभिणिगिज्म, एवं दुक्खा पमोक्खसि । ३१६४ पुरुष ! आत्मा का ही निग्रह कर। इस प्रकार तू दुःख से मुक्त हो जाएगा। पुरिसा! सच्चमेव समभिजाणाहि । ३।६५ पुरुष ! तू सत्य का ही अनुशीलन कर । सच्चस्स आणाए उवट्ठिए से मेहावी मारं तरति । ३१६६ जो सत्य की आज्ञा में उपस्थित है, वह मेधावी मृत्यु को तर जाता है। सहिए धम्ममादाय, सेयं समणुपस्सति । ३।६७ . सहिष्णु साधक धर्म को स्वीकार कर श्रेय को साक्षात् कर लेता है। सहिए दुक्खमत्ताए पुट्ठो णो झंझाए । ३।६९ सहिष्णु साधक कष्टों से स्पृष्ट होने पर व्याकुल न हो। आयाणं (णिसिद्धा) सगडमि । ३१७३ जो कर्म को रोकता है वही कर्म का भेदन कर पाता है । जे एगं जाणइ, से सम्वं जाणइ। जे सव्वं जाणइ, से एगं जाणइ । ३।७४ जो एक को जानता है, वह सबको जानता है। जो सबको जानता है, वह एक को जानता है। सव्वतो पमत्तस्स भयं, सम्वतो अप्पमत्तस्स पत्थि भयं । ३७५ प्रमत्त को सब ओर से भय होता है । अप्रमत्त को कहीं से भी भय नहीं होता। जे एगं नामे, से बहुं नामे । जे बहुं नामे, से एगं नामे । ३७६ जो एक को झुकाता है, वह बहुतों को झुकाता है। जो बहुतों को झुकाता है, वह एक को झुकाता है । वंता लोगस्स संजोग, जंति वीरा महाजाणं । ३७८ वीर साधक लोक-संयोग को छोड़कर महायान-महापथ पर चल पड़ते हैं। एग विगिचमाणे पुढो विगिचइ । पुढो विगिचमाणे एगं विगिचइ । ३७९ एक का विवेक करने वाला अनेक का विवेक करता है। अनेक का विवेक करने वाला एक का विवेक करता है। Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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