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________________ अ०८.विमोक्ष, उ०१. सूत्र २-५ ३५६ ३. इहमेगेसि आयार-गोयरे णो सुणिसंते भवति, ते इह आरंभट्ठी अणुवयमाणा हणमाणा घायमाणा, हणतो यावि समणुजाणमाणा। सं०-इहैकेषां आचारगोचरो नो सुनिशांतो भवति, ते इह आरम्भार्थिनः अनुवदन्तः घ्नन्त: घातयन्त: घ्नतश्चापि समनुजानन्तः । कुछ भिक्षुओं को आचार-गोचर सम्यग् उपलब्ध नहीं होता। वे आरम्भ के अर्थी होते हैं, आरंभ करने वालों का समर्थन करते हैं, स्वयं प्राणियों का वध करते हैं, करवाते हैं और करने वालों का अनुमोदन करते हैं। भाष्यम् ३-उक्तनिषेधः दर्शनविशुद्धयर्थं कृतः। पूर्वोक्त निषेध दर्शन-विशुद्धि के लिए किया गया है । अब इस इदानीं अस्य निषेधस्य कारणं स्पष्टयति संसर्गादिभवांश्च निषेध के कारण को स्पष्ट करते हुए सूत्रकार संसर्ग आदि से होने वाले दोषान् प्रदर्शयति सूत्रकारः । इह एकेषां आचारगोचरो दोषों को प्रदर्शित करते हैं। कुछ भिक्षुओं को आचारगोचर की सम्यग् न सुनिशांत:-सम्यग् अवधारितो भवति । ते इह भवन्ति अवधारणा नहीं होती। वे आरम्भ के अर्थी होते हैं। कुछ कहते हैंआरम्भाथिनः ।' केचिद् वदन्ति नास्ति आरम्भे दोषः। आरंभ में कोई दोष नहीं है । वे मुनि भी उन्हीं के अनुसार कहते हैंतेऽपि तेषां अनुवदन्ते, कोऽत्र आरम्भे दोषः ? इत्यनुवादेन आरम्भ में कौनसा दोष है ? इस समर्थन से वे स्वयं प्राणियों का घात ते स्वयं प्राणिनः घ्नन्ति, अन्यैश्च घातयन्ति, नतश्चापि करते हैं, दूसरों से घात करवाते हैं और घात करने वाले का अनुमोदन समनुजानन्ति। करते हैं। . ४. अदुवा अदिन्नमाइयंति । सं०-अथवा अदत्तमाददति । अथवा वे अदत्त का ग्रहण करते हैं। भाष्यम ४--अथवा ते पृथिव्यादीनां प्राणिनां वधं अथवा वे पृथिवी आदि प्राणियों का वध करते हुए अदत्त का कुर्वन्तः अदत्तमाददति । तत्स्वामिना पृथिव्यादिग्रहणं ग्रहण करते हैं। भूस्वामी ने पृथिवी आदि के ग्रहण की आज्ञा दी अनुज्ञातं, किन्तु पृथिव्यादिजीवैः स्वस्य वधो नानुज्ञातः, है, किन्तु पृथिवी आदि के जीवों ने अपने वध की आज्ञा नहीं दी है। तेन तेषामारम्भः अदत्तादानमेव ।' इसलिए उन प्राणियों का आरम्भ-हिंसा अदत्तादान ही है। ५. अदुवा वायाओ विउंजंति, तं जहा–अस्थि लोए, णस्थि लोए, धुवे लोए, अधुवे लोए, साइए लोए, अणाइए लोए, सपज्जवसिते लोए, अपज्जवसिते लोए, सुकडेत्ति वा दुक्कडेत्ति वा, कल्लाणेत्ति वा पावेत्ति वा, साहुत्ति वा असाहुत्ति वा, सिद्धीति वा असिद्धीति वा, णिरएत्ति वा अणिरएत्ति वा।। सं०-अथवा वाचः वियुञ्जन्ति, तद् यथा- अस्ति लोकः, नास्ति लोकः, ध्रुवः लोकः, अध्रुव: लोकः, सादिकः लोकः, अनादिक: लोकः, सपर्यवसित: लोकः, अपर्यवसितः लोकः, सुकृतं इति वा, दुष्कृतं इति वा, कल्याणं इति वा, पापं इति वा, साधु इति वा, असाधु इति वा, सिद्धिरिति वा, असिद्धिरिति वा, निरय इति वा, अनिरय इति वा । अथवा वे परस्पर विरोधी वादों का प्रतिपादन करते हैं । जैसे-अस्तित्ववादी मानते हैं लोक वास्तविक है । नास्तित्ववादी मानते हैं- लोक वास्तविक नहीं है। अचलवादी मानते हैं --आदित्य-मंडल स्थिर है। चलवादी मानते हैं - आदित्य-मण्डल चल है। सृष्टिवादी मानते हैं-लोक सादि है । असृष्टिवादी मानते हैं-लोक अनादि है। सृष्टिवादी मानते हैं - लोक सांत है । असृष्टिवादी मानते हैं-लोक अनन्त है । कुछ दार्शनिक मानते हैं सुकृत है। कुछ दार्शनिक मानते हैं-दुष्कृत है । कुछ दार्शनिक मानते हैं - कल्याण है । कुछ दार्शनिक मानते हैं - पाप है। कुछ दार्शनिक मानते हैं -- साधु है । कुछ दार्शनिक मानते हैं-असाधु है। कुछ दार्शनिक मानते हैं -निर्वाण है । कुछ दार्शनिक मानते हैं निर्वाण नहीं है। कुछ दार्शनिक मानते हैं नरक है। कुछ वार्शनिक मानते हैं-नरक नहीं है। १. आचारांग चूणि, पृष्ठ २५१ : 'आरंभो णाम पयणपयाव णादि असंजमो तेण जेसि अट्ठो एसो आरंभट्टी।' २. प्राणी के प्राणों का अपहरण करना अदत्त है । प्राणवध करने वाला केवल हिंसा का ही दोषी नहीं है, साथ-साथ अदत्त का भी दोषी है। हिंसा का सम्बन्ध अपनी भावना से है, किन्तु प्राणी अपने प्राणों के अपहरण की अनुमति नहीं देते, इसलिए अदत्त का सम्बन्ध म्रियमाण प्राणियों से भी है । (मिलाइए-आयारो, १५८) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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