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________________ ४३८ आचारांगमाष्यम् अचिकित्सा कायव्युत्सर्गस्य प्रयोग एव । यथा यथा अचिकित्सा काय-व्युत्सर्ग का ही प्रयोग है। जैसे-जैसे अन्तअन्तरात्मनि अनुप्रवेशो भवति तथा तथा चिकित्सायाः रात्मा में प्रवेश होता है, वैसे-वैसे चिकित्सा की भावना भी दूर होती भावः अपगतो भवति। केचित रोगैरस्पृष्टा अपि बल- जाती है। कुछ लोग रोगों से अस्पृष्ट होने पर भी बल, वीर्य और वीर्यकान्त्याद्य भिवर्धनाथ' रोगसंभावनानिवारणार्थमपि कान्ति आदि की अभिवृद्धि के लिए तथा रोग की संभावना के निवारण च आयुर्वेदोक्तां पञ्चकर्मस्वरूपां चिकित्सां कुर्वन्ति ।। के लिए आयुर्वेद में प्रतिपादित 'पंचकर्म' चिकित्सा करते हैं। भगवान् भगवान् तामपि वर्जितवान् । ने उस चिकित्सा का भी वर्जन किया । अस्यानुसारी उपदेश: इसका संवादी उपदेश है'लखे आहारे अणगारे मायं जाणेज्जा। 'आहार प्राप्त होने पर मुनि मात्रा को जाने ।' 'एते रोगे बहू णच्चा, आउरा परितावए।" 'इन नाना प्रकार के रोगों को उत्पन्न हुआ जान कर आतुर मनुष्य (चिकित्सा के लिए) दूसरे जीवों को परिताप देते हैं।' 'णालं पास ।५ 'तू देख, ये चिकित्सा-विधियां पर्याप्त नहीं हैं।' 'अलं तवेएहि ।" 'इन चिकित्सा-विधियों का तू परित्याग कर।' 'एयं पास मुणी ! महन्मयं ।" 'मुने ! तुम देखो, यह हिंसामूलक चिकित्सा महान् भय उत्पन्न करने वाली है।' 'णातिवाएज्ज कंचणं।" 'मुनि चिकित्सा के निमित्त भी किसी प्राणी का वध न करे ।' २. पञ्चकर्म ये हैं-वमन, विरेचन, स्नेहन, स्वेदन और नस्य । चरक में इनका मूल स्रोत मिलता है- . 'लंघनं बृंहणं काले, रूक्षणं स्नेहनं तथा । स्वेदनं स्तम्भनं चैव, जानीते यः स वै भिषग् ॥' . (चरक, सूत्रस्थान, २२।४) प्रकारान्तर से पञ्चकर्म का उल्लेख शाङ्गधर में मिलता (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र २८४ : भगवतो हि न प्राकृत स्येव देहजाः कासश्वासादयो भवन्ति, आगन्तुकास्तु शस्त्रप्रहारजा भवेयुः, इत्येतदेव दर्शयति सच भगवान् स्पृष्टो वा श्वमणादिभिः अस्पृष्टो वा कासश्वासादिभिर्नासौ चिकित्सामभिलषति, न द्रव्योषधाधुपयोगतः पोडोपशमं प्रार्थयतीति । १. आयुर्वेद के अनुसार संशोधन से निम्नोक्त गुण प्राप्त होते हैं - १. कायाग्नि तीक्ष्ण होती है। २. व्याधियां प्रशमित होती हैं। ३. स्वास्थ्य का अनुवर्तन होता है। ४. इन्द्रियां प्रसन्न रहती हैं। ५. मन और बुद्धि के कार्यों का प्रकर्ष होता है। ६. वर्ण-प्रसादन होता है। ७. बल बढ़ता है। ८. शरीर पुष्ट होता है। ९. अपत्य या सन्तानोत्पत्ति होती है। १०. वीर्य की वृद्धि होती है। ११. वृद्धावस्था देर से आती है। १२. रोग रहित दीर्घ आयुष्य प्राप्त होता है। ‘एवं विशुद्धकोष्ठस्य, कायाग्निरभिवर्धते । व्याधयश्चोपशाम्यन्ते, प्रकृतिश्चानुवर्तते ॥' 'इन्द्रियाणि मनो बुद्धिवर्णश्चास्य प्रसीदति । बलं पुष्टिरपत्यं च वृषता चास्य जायते ॥' 'जरां कृच्छेण लभते, चिरं जीवत्यनामयः।' (चरक, सूत्रस्थान १६.१९) 'वमनं रेचनं नस्य, निरुदृश्चानुवासनम् । एतानि पञ्चकर्माणि, कथितानि मुनीश्वरैः॥' ३. आयारो, २।११३। ४-८. (क) आयारो, ६।१९-२३ । (ख) रोग के दो प्रकार होते हैं-धातु-क्षोभ से उत्पन्न और आगन्तुक । भगवान् के शरीर में धातु-क्षोभ से होने वाले रोग नहीं थे। मनुष्य और जीव-जन्तुओं द्वारा घाव आदि (आगन्तुक रोग) किए जाते । उनके शमन के लिए भी भगवान् चिकित्सा नहीं करते थे। ग्वाले ने भगवान् के कान में शलाका प्रविष्ट कर दी। खरक वैद्य ने उसे निकाला और औषधि का लेपन किया। भगवान् ने मन से भी उसका अनुमोदन नहीं किया। Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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