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________________ अ०६. उपधानश्रुत, उ०३. गाथा ५-१० ४३५ ८. जाओ संगामसोसे वा, पारए तत्थ से महावीरे। एवं पि तत्थ लाहिं, अलसपुव्वो वि एगया गामो॥ सं०-नागः संग्रामशीर्षे वा, पारगः तत्र स महावीरः । एवमपि तत्र लाढेषु, अलब्धपूर्वोऽपि एकदा ग्रामः । जैसे हाथी संग्राम-शीर्ष में शस्त्र से विद्ध होने पर भी खिन्न नहीं होता, किन्तु युद्ध का पार पा जाता है, वैसे ही भगवान महावीर ने लाढ प्रदेशों में परीषहों का पार पा लिया। उन्हें वहां कभी-कभी प्राम नहीं मिला, निवास के लिए स्थान भी नहीं मिला। भाष्यम् ८-यथा कृतयोगी हस्ती बाणादिभिर्विद्धोपि जैसे कृतयोगी-कवच से सन्नद्ध हाथी बाण आदि शस्त्रों से नावसीदति, किन्तु युद्धस्य पारं गच्छति ।' एवं भगवान् विद्ध होने पर भी खिन्न नहीं होता, किन्तु युद्ध का पार पा जाता है, कृतयोगत्वात् कायव्युत्सर्गप्रयोगस्य पारं प्रगतः । वैसे ही भगवान् भी योग में निष्णात होने के कारण काय-व्युत्सर्ग के __ प्रयोग का पार पा गए। एकदा भगवान् प्रामं तात्पर्यार्थे निवासं न लब्धवान् एकबार भगवान् को गांव अर्थात् निवासस्थान नहीं मिला तथापि न विचलनमभूत् ।' फिर भी भगवान् उस स्थिति से विचलित नहीं हुए। ६. उवसंकमंतमपडिण्णं, गामंतियं पि अप्पत्तं । पडिणिक्खमित्त लूसिसु, एत्तो परं पलेहित्ति । सं०-उपसंक्रामन्तमप्रतिज्ञं ग्रामान्तिकमपि अप्राप्तम् । प्रतिनिष्क्रम्य अलूलुषन्, इतो परं प्रतिलिख इति । भगवान् नियत वास और नियत आहार का संकल्प नहीं करते थे। वे प्रयोजन होने पर निवास या आहार के लिए गांव में जाते । उसके भीतर प्रवेश से पूर्व ही कुछ लोग उन्हें रोक देते, प्रहार करते और कहते-यहां से आगे कोई दूसरा स्थान देखो। भाष्यम् ९-भिक्षायै वसतिनिमित्तं वा ग्रामं उपसं- भगवान् भिक्षा या आवास के लिए गांव में जाते, किन्तु क्रामन्तं अप्रतिज्ञं-नियतवासं नियतमाहारं चासंकल्प- नियत वास और नियत आहार का संकल्प नहीं करते। भगवान् गांव मानं भगवन्तं प्रामान्तिकं-ग्राममप्राप्तमपि ग्रामवासिनः के पास पहुंचते, किन्तु भीतर प्रवेश करने से पूर्व ही गांववासी लोग अललुषन्-ताडनां तर्जना प्रहारं वा अकार्षः । ताड़ना, तर्जना और प्रहार करते और कहते-हे नग्नभिक्षो! हमारे अवादिष:-हे नग्नभिक्षो ! किमस्माकं ग्राम प्रविशसि? गांव में क्यों प्रवेश कर रहे हो ! तुम यहां से आगे किसी दूसरे गांव को त्वं अतः परं प्रतिलिख इति । देखो। १०. हयपुवो तत्थ वंडेण, अदुवा मुट्टिणा अदु कुंताइ-फलेणं । अदु लेलुणा कवालेणं, हंता हंसा बहवे कंदिसु ॥ सं०-हतपूर्वः तत्र दण्डेन, अथवा मुष्टिना 'अदु' कुन्तादिफलेन । 'अदु' लेष्टुना कपालेन, हत्वा हत्वा बहवः अक्रन्दिषुः । वहां कुछ लोग दण्ड, मुष्टि, भाला आदि शस्त्र, चपेटा, मिट्टी के ढेले और कपाल (खप्पर) से भगवान् पर प्रहार कर खुशी से चिल्लाते। सुणगावयो, माणुस्सगावि ते अणारिया पायं आहणंति, अभिसमेच्चत्ति तं लाढविसयं, यदुक्तं भवति-प्राप्य।' (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र २८२ : "णिधाय-त्यक्त्वा । दण्ड के तीन प्रकार हैं-मन-दण्ड, वाणी-दण्ड और शरीर-दण्ड । भगवान् कष्ट देने वाले जीवजन्तुओं व प्राणियों का स्वयं निवारण नहीं करते थे, उनका निवारण करने के लिए दूसरों से नहीं कहते थे, उनके निवारण के लिए मानसिक संकल्प भी नहीं करते थे। वे मन, वचन और शरीर-तीनों को आत्मलीन रखते थे। १. आचारांग चूणि, पृष्ठ ३१९ : सोहि अग्गतो ठितो दूरत्येहि चेव उसुमादीहिं विमति, समीवत्येहि य असिमादीहि य, सो य कृतयोगत्ता तह हण्णमाणोऽवि ण सीतति, पारमेव गच्छति । २. वही, पृष्ठ ३१९-३२० : एगया कदायि, गामि पविट्ठण णिवासो लद्धपुत्वो, जेण उवस्सतो ण लखो तेण गामो ण लद्धो चेव भवति। ३. वही, पृष्ठ ३२० : णग्गा तुम कि अम्हं गामं पविससि ? ४. (क) आचारांग चूणि पृष्ठ ३२० : एत्तो परं पलेहेति एत्तो चेव परेण लेहेति । (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र २८३ : 'पहि' गच्छति । (ग) भगवान् निर्वस्त्र थे। लाडवासी लोगों को यह नग्नता पसन्द नहीं थी। इसलिए वे भगवान् के प्राम-प्रवेश को पसंद नहीं करते थे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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