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अन्तस्तोष अनिर्वचनीय होता है उस माली का जो अपने हाथों से उप्त और सिंचित द्रुम-निकुंज को पल्लवित, पुष्पित और फलित हुआ देखता है, उस कलाकार का जो अपनी तूलिका से निराकार को साकार हुआ देखता है और उस कल्पनाकार का जो अपनी कल्पना को अपने प्रयत्नों से प्राणवान् बना देखता है । चिरकाल से मेरा मन इस कल्पना से भरा था कि जैन आगमों का शोधपूर्ण संपादन हो और मेरे जीवन के बहुश्रमी क्षण उसमें लगे । संकल्प फलवान् बना । मुझे केन्द्र मानकर मेरा धर्म-परिवार उस कार्य में संलग्न हो गया और कार्य को निष्ठा तक पहुंचाने में पूर्ण श्रम किया ।
कुछ वर्ष पूर्व मेरे मन में कल्पना उठी कि आचारांग सूत्र पर संस्कृत में भाष्य लिखा जाए। मेरे उत्तराधिकारी आचार्य महाप्रज्ञ ने इस कल्पना को साकार कर, भाष्य की विच्छिन्न परम्परा का संधान कर, मेरे तोष में वृद्धि की ।
अन्तस्तोष
अतः मेरे इस अन्तस्तोष में मैं उन सबको समभागी बनाना चाहता हूं, जो इस प्रवृत्ति में संविभागी रहे हैं। संक्षेप में वह संविभाग इस प्रकार है :
आचारांग के भाष्यकार : आचार्य
महाप्रज्ञ
सहयोगी : महाश्रमण मुनि मुदितकुमार
मुनि दुलहराज मुनि महेन्द्रकुमार
संस्कृत छाया सहयोगी मुनि श्रीचन्द्र 'कमल'
मुनि राजेन्द्रकुमार
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परिशिष्ट सहयोगी मुनि राजेन्द्रकुमार
मुनि धर्मेशकुमार
साध्वी विमलप्रज्ञा
संविभाग हमारा धर्म है । जिन-जिन ने इस गुरुतर प्रवृत्ति में उन्मुक्त भाव से अपना संविभाग समर्पित किया है, उन सबको मैं आशीर्वाद देता हूं और कामना करता हूं कि उनका भविष्य इस महान् कार्य का भविष्य बने ।
साध्वी सिद्धप्रज्ञा साध्वी अमृतयशा साध्वी दर्शनविभा
समणी उज्ज्वल प्रज्ञा
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गणाधिपति तुलसी
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