Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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भी इच्छा रहनेसे उनके भी सम्यग्दर्शन मानना पडेगा । वह हो नहीं सकता इसलिये 'इच्छासे श्रद्धान || होना सम्यग्दर्शन हैं' यह सम्यग्दर्शनका स्वरूप नहीं मानना चाहिये । तथा
__ केवलिनि सम्यक्त्वाभावपसंगाच्च ॥ २८॥ है। यदि इच्छाके द्वारा श्रद्धान होना ही सम्यग्दर्शन माना जायगा तो केवली भगवान के सम्यग्दर्शन
का अभाव कहना पडेगा क्योंकि इच्छा लोभकी पर्याय है । लोभका दश ही गुणस्थानमें नाश होजाने के कारण क्षीणमोह भगवान केवलीके उसका अभाव है। लोभका अभाव रहनेपर इच्छा भी नहीं रह से सकती इस रीतिसे इच्छाके न रहनेपर इच्छाके द्वारा होनेवाला सम्यग्दर्शन केवलीके बाधित है। इसलिये ।
जो पदार्थ जिस रूपसे स्थित हैं उनका उसी रूपसे श्रद्धान जिसके द्वारा हो वही सम्यग्दर्शन है अन्य भी सम्यग्दर्शनाभाप्त है।
___ तहिविधं सरागवीतरागविकल्पात् ॥ २९॥ ___ वह सम्यग्दर्शन दो प्रकारका है एक सरागसम्यग्दर्शन दूसरा वीतराग सम्यग्दर्शन । सरागताका कारण सम्यग्दर्शन सरागसम्यग्दर्शन कहा जाता है और वीतरागताका कारण वीतराग सम्यग्दर्शन है। उनमें
प्रशमसंवेगानुकंपास्तिक्याभिव्यक्तलक्षणं प्रथमं ॥३०॥ . प्रशम संवेग अनुकंपा और आस्तिक्य आदिसे प्रगट जाना जाता है वह सरागसम्यक्त्व कहा || जाता है । राग द्वेष आदिकी उत्कटताको दवा देना प्रशम है। संसारमें भयभीत रहना संवेग है। सब || जीवोंको अपना मित्र समझना अनुकंपा है और जीव अजीव आदि पदार्थोंका जो स्वरूप है उसी
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