Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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अर्थग्रहणमव्यभिचारार्थ ॥ २२॥ अनिष्ट अर्थकी प्राप्ति हो जाना व्यभिचार कहा जाता है व्यभिचार दोषकी निवृत्ति के लिये सूत्रमें अर्थ शब्दका ग्रहण है अर्थात् जो पदार्थ वास्ताविक पदार्थ हैं उन्हींका श्रद्धान सम्यग्दर्शन है मिथ्यावादियोंद्वारा माने हुए पदार्थोंका श्रद्धान सम्यग्दर्शन नहीं । इसलिये सूत्रमें अर्थ शब्दका ग्रहण किया , गया है। वह व्यभिचार दोष इस प्रकार है
तत्वमितिश्रद्धानमिति चेदेकांतनिश्चितेऽपि प्रसंगः ॥२३॥ सूत्रमें अर्थ शब्द न ग्रहण करनेपर 'तत्त्वश्रद्धानं सम्यग्दर्शन' ऐसा सूत्र रहेगा। 'तत्वश्रद्धानं' यह है समस्त पद है और समासके द्वारा उसके अनेक अर्थ होते हैं। उनमें 'तत्वमिति श्रद्धानं तत्वश्रद्धानं' है। अर्थात् तत्वस्वरूप जो श्रद्धान वह तत्वश्रद्धान कहा जाता है यदि यह अर्थ किया जायगा तो एकांतवादियोंने 'आत्मा कोई पदार्थ नहीं है वा वह सर्वथा नित्य ही है इत्यादि तत्वोंका श्रद्धान कर रक्खा है । वह भी सम्यग्दर्शन कहा जायगा इमलिये तत्वस्वरूप जो श्रद्धान वह तत्वश्रद्धान कहा जाता है यह अर्थ नहीं हो सकता । तथा
तत्त्वस्य श्रद्धानमिति चेहावमात्रपूसंगः ॥२४॥ यदि तत्वस्य श्रद्धानं तत्वश्रद्धानं अर्थात् तत्वका जो श्रद्धान वह तत्वश्रद्धान है यह अर्थ किया जाय तो भी ठीक नहीं। नैयायिक आदिने तत्व शब्दका अर्थ भावसामान्य माना है और वह द्रव्य है। ॐ गुण आदिसे भिन्न द्रव्यत्व गुणत्व कर्मत्व आदि स्वरूप है । उसका भी श्रद्धान सम्यग्दर्शन कहना पडेगा , किंतु वह बाधित है क्योंकि द्रव्य गुण-आदिसे भिन्न द्रव्यत्व आदि सामान्य किसी भी प्रमाणसे निश्चित
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