Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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|| नहीं है अथवा 'पुरुष एवंदं सर्व इत्यादि रूपसे पुरुषाद्वैतवादियोंने तत्व शब्दका अर्थ एक पुरुष ही मान रक्खा है, उसका भी श्रद्धान सम्यग्दर्शन कहना पडेगा। सो भी ठीक नहीं।' क्रिया कारक कार्य कारण
आदिका भेद जो प्रत्यक्ष दीख रहा है उस सबका लोप हो जायगा इसलिये तत्वकाजो श्रद्धान वह तत्व|| श्रद्धान है यह अर्थ भी तत्वश्रद्धान शब्दका नहीं हो सकता । तथा
तत्वेन श्रद्धानमिति चेत्कस्य कस्मिन्वेति प्रश्नानिवृत्तिः॥२५॥ यदि तत्वेन श्रद्धानं तत्वश्रद्धानं' अर्थात् तत्वके द्वारा जो श्रद्धान होता है वह तत्वश्रद्धान कहा जाता है यदि यह अर्थ किया जायगा तो तत्वके द्वारा श्रद्धान किसके और किसमें होता है ? यह प्रश्न
नहीं दूर हो सकता। क्योंकि तत्वके द्वारा श्रद्धान आज तक सुननेमें नहीं आया इसलिये तत्वके द्वारा छ जो श्रद्धान होता है वह तत्वार्थश्रद्धान कहा जाता है यह भी अर्थ बाधित है इस गौतसे तत्वार्थरूप
जो श्रद्धान वह तत्वश्रद्धान है इस अर्थमें भी व्यभिचार है । तत्वका जो श्रद्धान वह तत्वश्रद्धान कहा जाता है इस अर्थक करने में भी व्यभिचार है एवं तत्वके द्वारा जो श्रद्धान हो वह तत्वश्रद्धान है इस अर्थमें भी व्यभिचार है इसलिये व्यभिचारकी निवृत्ति के लिये सूत्रमें अर्थ शब्दका कहना निर्दोष है।
___इच्छाश्रद्धानमित्यपरे वर्णयंति ॥ २६॥ तद्युक्तं मिथ्यादृष्टेरपि प्रसंगात् ॥ २७॥
किसी वादीका कहना है कि इच्छासे जो श्रद्धान होता है वह सम्यग्दर्शन है, वह अयुक्त है। क्योंकि मिथ्यादृष्टी लोग हम बहुत शास्रोंके जानकार हैं' इस वातकी प्रसिद्धिकी इच्छासे अथवा
अहंतमतके जीतनेकी इच्छासे जैनशास्त्रोंका अध्ययन करते हैं। विना इच्छाके वे अध्ययन नहीं कर | सकते । यदि इच्छासे जो श्रद्धान होता है वह सम्यग्दर्शन है' यह माना जायगा तो मिथ्यादृष्टियोंके
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