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अञदत्तिक
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अञपुरिससारत्त दुज्जानो ... अत्रयोगेन अञथाचरियकेन, म. नि. भासितं सुस्सूसन्ति, दी. नि. 3.38; ग. (विप. निपा. के रूप 2.164; दी. नि. 1.166; पाठा. अञत्राचरियकेन; - धम्म में), अन्यथा, इससे विपरीत - अञदत्थु समणयेव गोतम त्रि., भिन्न प्रकृति या स्वभाव वाला - म्मो पु., प्र. वि., ए. ओकासं याचन्ति अगारस्मा अनगारियं पब्बज्जाय, म. नि. व. - कोलियानं लम्बचूळका भटा, अञ्जथाधम्मोहमस्मीति, 1.238; न सोभति ... अज्ञदत्थु गरहं लभति, ध. प. अट्ठ. स. नि. 2(2).321; - भाव पु., [अन्यथाभाव], रूपान्तरण, 1.218; -- जय पु., पूर्ण विजय, निश्चित विजय - निय्यन्ति स्वरूप-परिवर्तन, विपरिणमन, दुसरे रूप में बदलाव, पांच धीरा लोकम्हा, अञदत्थुजयं जयं, स. नि. 3.6; - दस त्रि., प्रकार के विपर्यासों में से एक - वो प्र. वि., ए. व. - सब लोगों को तुरन्त देख लेने वाला, प्रत्येक वस्तु को विपल्लासो अञ्जथाभावो व्यत्तयो च विपरिययो विपरियासो देखने वाला, पूर्ण द्रष्टा - सो पु.. प्र. वि., ए. व. - ..., अभि. प. 776; - वं द्वि. वि., ए. व. - इत्थभावजथाभावं अहमस्मि ब्रह्मा महाब्रह्मा ... अञदत्थदसो वसवत्ती इस्सरो संसारं नातिवत्तति, इतिकु. 77; इत्थभावञ्जथाभावं, अविज्जायेव कत्ता, दी. नि. 1.16; सदेवमनुस्साय तथागतो अभिभू अनभिभूतो सा गति, सु. नि. 734; स. उ. प. में द्रष्ट. पसादञ्जथाभाव अञदत्थुदसो वसवत्ती, अ. नि. 1(2).28; इतिवु. 85; के अन्त; - भावी त्रि., [अन्यथाभावी], रूपान्तरण को अञ्जदत्थूति एकसत्थे निपातो ... सब्बं तं हत्थतले आमलक प्राप्त, विपर्यस्त, दूसरे स्वरूप में विपरिवर्तित, दूसरी तरह विय पस्सतीति दस्सो, इतिवु. अट्ठ. 321; तुल. रामायण से बदल जाने वाला - चक्खं भिक्खवे, अनिच्च विपरिणामि 7.35; - हर त्रि., बिना दिये हुए केवल लेने ही वाला, अञ्जथाभावी, स. नि. 2(1).218; अअथाभावी भवसत्तो लोको, पूर्णतः हरण करने वाला - रो पु०, प्र. वि., ए. व. - भवमेवाभिनन्दति, स. नि. 2(2).21; उदा. 105; स. उ. प. अज्ञदत्थहरो अमित्तो मित्तपतिरूपको वेदितब्बो. दी. नि. में द्रष्ट. अनाथाभावी; - सञी त्रि., [अन्यथासङ्घी], 3.141; - रा ब. व. - अञदत्थहरा सन्ता, ते वे राज पिया विपरीत-रूप में विचार या दृष्टिकोण रखने वाला, विपरीत- होन्ति, जा. अट्ठ. 6.208. मतवादी, अन्यमतवादी - चिनो पु.. प्र. वि., ब. व. - अञदा निपा., [अन्यदा, अ. मा. अण्णया], शा. अ. किसी अअथासञिनोपि हेत्थ, चुन्द, सन्त्येके सत्ता, दी. नि. 3.103. दूसरे समय में, प्रयोगगत अर्थ क. पूर्वकाल में, प्राचीन अञदत्तिक त्रि., [अन्यदत्तक], किसी अन्य के द्वारा प्रदत्त, समय में- न हि मे अञदा ताय नत्थिपूवा नाम पक्कपुब्बाति,
दूसरे के द्वारा दिया हुआ - कं नपुं., प्र./द्वि. वि., ए. व. ध. प. अट्ठ. 2.354; उदरवातो मे समुट्टितो ति; अञदापि - पटिसवानरहितो पच्चयं अअदत्तिक, सद्धम्मो. 394. समुद्वितपुब्बो, भन्ते ति, ध. प. अट्ठ. 2.357; ख. एक बार अञदत्थ पु., [अन्यार्थ], दूसरा प्रयोजन, अन्य लक्ष्य, फिर, पुनः एक बार - यदा अञदापि एवरूपो पज्हो दूसरा लाभ - एतम्पि दिस्वा विरमे कथोज्ज, न आगच्छेय्य, स. नि. 2(2).278; पाठा. अञथापि, हञदत्थत्थिपसंसलामा, सु. नि. 834.
अदिद्विक त्रि., ब. स. [अन्यदृष्टिक], बुद्धधर्म से भिन्न अञदत्थिक त्रि., [अन्यार्थिक], किसी अन्य के लिये धर्म में श्रद्धा रखने वाला - केन पु., तृ. वि., ए. व. - तया निर्धारित, किसी दूसरों को दी जानी वाली - केन पु., तृ. अदिद्विकेन अञ्जखन्तिकेन अरुचिकेन अञ्जयोगेन वि., ए. व. - भिक्खुनियो अञदत्थिकेन परिक्खारेन ... ..., दी. नि. 1.166; म. नि. 2.164. अझं चेतापेय्य, निस्सग्गियं पाचित्तियन्ति, पाचि. 340. अञपदत्थ पु., ब. स. [अन्यपदार्थ], ब. स. के व्याख्यान् अञदत्थु/अञदत्थु निपा., [अन्यमस्तु, आस्तां तावत्, के सन्दर्भ में प्रयुक्त एक पारिभाषिक शब्द, ऐसा समास,
शा. अ. रहने भी दो, प्रयोगगत अर्थ - क. (नियमतः जिसमें समास से बाहर के अथवा अन्य पदों के अर्थ 'एव' एवं 'व' के साथ ही प्रयुक्त), केवल, पूर्णरूप से, प्रधान रहते हैं - त्थेसु सप्त. वि., ब. व. - अञपदत्थेसु निश्चित रूप से - अञदत्थु तु तगघेकसे ससक्कं चाद्धा बहुब्बीहि, क. व्या. 330; मो. व्या. 2.188-189; 3.86; तुल. कामं जातुचे हवे, अभि. प. 1140; अञदत्थु मम व मजे कातन्त्र 2.5; - पधान त्रि., [अन्यपदार्थप्रधान], ब. स., अनुजग्घन्ता, न मं कोचि आसनेनपि निमन्तेसि, दी. नि. जिसमें अन्य पदों के अर्थों की प्रधानता रहती है, रू. सि. 337. 1.79; ख. ('एव' के प्रयोग के बिना ही वाक्यों में प्रायः 'खो' अञपुरिससारत्त त्रि., अन्य पुरुष के प्रति आकृष्ट - त्ता के तात्पर्य में प्रयुक्त), कम से कम, निश्चित रूप से - पु., प्र. वि., ब. व. - कुद्धा वा अञ्जपुरिससारत्ता वा हुत्वा अञदत्थु खो दानिमे अतिथिया परिब्बाजका भगवतो सब्बमेतं हननादि करेय्यु, जा. अट्ठ. 5.447.
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