Book Title: Pali Hindi Shabdakosh Part 01 Khand 01
Author(s): Ravindra Panth and Others
Publisher: Nav Nalanda Mahavihar

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Page 732
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir असेख/असेक्ख 705 असेचन नासूरोति न असूरो भीरुकजातिको, जा. अट्ठ. 7.186; ननं असूरो जिनाति, सु. नि. 441; ... एवं तव सेनं असूरो काये । च जीविते च सापेक्खो पुरिसो न जिनाति, सु. नि. अट्ठ. 2.107; - रं द्वि. वि., ए. व. - तं युद्धत्थो भरे राजा, नासूर जातिपच्चया, स. नि. 1(1).118; नासूरं जातिपच्चयाति, अयं जातिसम्पन्नोति एवं जातिकारणा असूरं न भरेय्य, स. नि. 1(1).146. असेख/असेक्ख त्रि., सेक्ख का निषे., तत्पु. स. [बौ. सं. अशैक्ष्य], शा. अ. शिक्षा द्वारा प्रशिक्षित नहीं किया जाने योग्य, ला. अ. 1. अर्हत्, जिसे अब आगे किसी प्रकार की शिक्षा की आवश्यकता नहीं रह जाती है, 2. अर्हत् द्वारा प्राप्त किये जा रहे शील, समाधि एवं प्रज्ञा जैसे सम्प्रयुक्त धर्म - क्खो पु., प्र. वि., ए. व. - असेक्खेन सीलक्खन्धेनाति असेक्खस्स सीलक्खन्धो असेक्खो सीलक्खन्धो नाम, स. नि. अट्ठ. 1.146; खीणासवो त्वसेक्खो च वीतरागो तथा रहा, अभि. प. 10; तयो पुग्गला-सेक्खो पुग्गलो, असेक्खो पुग्गलो, नेवसेक्खोनासेक्खो पुग्गलो, दी. नि. 3.174; खीणासवो सिक्खितसिक्खत्ता पुन न सिक्खिस्सतीति असेक्खो, दी. नि. अट्ठ. 3.164; - क्खा' स्त्री., प्र. वि., ए. व. - अरहतो पञ्जा असेक्खा, दी. नि. अट्ठ. 3.166; - क्खा पु.. प्र. वि., ब. व. - दस असेक्खा । धम्मा, दी. नि. 3.216; असेक्खा सम्मादिट्ठीतिआदयो सब्बेपि फलसम्पयुत्तधम्मा एव, दी. नि. अट्ठ. 3.215; - खं नपुं., प्र. वि., ए. व. - सेखस्स असेखं आणं अत्थीति, कथा. 254; - खेन पु., तृ. वि., ए. व. - असेखेनावुसो, सारिपुत्त, भिक्खुना चत्तारो सतिपट्टाना उपसम्पज्ज विहातब्बा, स. नि. 3.370; - जाण नपुं., तत्पु. स. [बौ. सं. अशैक्ष्यज्ञान], अर्हत् का आज्ञा ज्ञान, “मैंने अर्हत् अवस्था को प्राप्त कर लिया, इस प्रकार का प्रतिवेधज्ञान, आस्रवों के क्षय का ज्ञान - नं प्र. वि., ए. व. - असेखञाणमुप्पन्न, अन्तिमोयं समुस्सयो, स. नि. 2(1),78; असेखजाणन्ति अरहत्तफलञाणं. स. नि. अट्ठ. 2.251; - ञाणकथा स्त्री., कथा. के एक स्थलविशेष का शीर्षक, कथा. 254-255; - त्त नपुं, भाव. [बौ. सं. अशैक्ष्यत्व]. अशैक्ष्य या अर्हत्व के फल के प्राप्ति की अवस्था - त्ता प. वि., ए. व. - सा हि सयं असेक्खत्ता असेक्सविसयं अमआसि, उदा. अट्ठ. 141; - धम्मक्खन्ध पु., तत्पु. स. [बौ. सं. अशैक्ष्यधर्मस्कन्ध], अर्हत् द्वारा प्राप्त पांच प्रकार के धर्म - न्धस्स ष. वि., ए. व. - पञ्चअसेक्खधम्मक्खन्धस्स च भागवा होतीति ... अरहत्तेन देसनाय कूट गण्हीति, ध. प. अट्ठ. 1.92; - बल नपुं., तत्पु. स. [बौ. सं. अशैक्ष्यबल]. अर्हत् के बल - लानि प्र. वि., ए. व. - दस असेखबलानि? सम्मादिहिं सिक्खतीति सेखबलं, तत्थ सिक्खितत्ता असेखबलं. पटि. म. 347; - भागिय त्रि., [बौ. सं. अशैक्ष्यभागीय]. अर्हत्वफल की लोकोत्तर अवस्था से सम्बन्धित - यं नपुं.. प्र.वि., ए. व. - किं इदं सुत्तं आहच्च वचनं... संकिलेसभागियं ... असेक्खभागियं, नेत्ति. 20; 105; परिनिट्टितसिक्खाधम्मा असेक्खा, असेक्खभावे पवत्तं, असेक्खे भजापेतीति वा असेक्खभागियं, नेत्ति. अट्ठ. 338; - भूमि स्त्री., तत्पु. स. [बौ. सं. अशैक्ष्यभूमि], अर्हत्तव-फल की अवस्था- मि द्वि. वि., ए. व. - तस्मा उत्तरि असेक्खभूमिं पुच्छन्तो दुतिय पहं पुच्छि , म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).178; - मुनि पु.. कर्म. स. [बौ. सं. अशैक्ष्यमुनि], अर्हत्, वह आर्यपुद्गल, जिसके चित्त के सभी आस्रव क्षीण हो चुके है - नीनं ष. वि., ब. व. - एवरूपानं असेखमुनीनं अभिसम्परायो नाम नत्थि, ध. प. अठ्ठ. 2.186; - रतन नपुं.. कर्म. स. [बौ. सं. अशैक्ष्यरत्न], रत्नों की भांति अनुत्तर मूल्यों वाला अर्हत् - नं प्र. वि., ए. व. - असे खरतनम्पि दुविध सुखविपस्सकसमथयानिकवसेन, खु. पा. अट्ठ. 141; - विसय पु., तत्पु. स. [बौ. सं. अशैक्ष्यविषय], अर्हतों के ज्ञान का क्षेत्र - यं द्वि. वि., ए. व. - सा हि सयं असेक्खत्ता असेक्सविसयं अब्मासि, उदा. अठ्ठ 141; सीलक्खन्धमहन्तता स्त्री., भाव., अर्हतों की शीलराशि की उत्कृष्टता या ऊंचाई - य तृ. वि., ए. व. - कुदास्सु नामाहम्पि एवं असेखसीलक्खन्धमहन्तताय सञ्जातक्खन्धो भवेय्यं सु. नि. अट्ठ. 1.82. असेख/असेखिय त्रि., [अशैक्ष्य], अर्हत् से सम्बद्ध सम्यक्दृष्टि आदि कुशल धर्म, शिक्षा प्राप्ति के मार्ग से आगे पहुंच चुके आर्यपुद्गल से सम्बन्धित कुशल धर्म - या पु., प्र. वि., ब. व. - असेखिया धम्मा, ..., असेखा सम्मादिष्ट्टि, . .... असेखा सम्माविमुत्ति - अ. नि. 3(2).189; द्वादसमे असेखियाति असेखायेव, असेखसन्तका वा, अ. नि. अट्ठ. 3.333. असेचन त्रि., अ + सिच (सींचना) का क्रि. ना. अथवा सेचनक का निषे. [बौ. सं. आसेचन], शा. अ. चित्त, आंखों, कानों, जिह्वा तथा काय आदि में प्रीति उत्पन्न कर देने वाला, आनन्द से पूरी तरह सिक्त या भिगोया हुआ, वह, जिसे देखते-देखते जी न भरे, मनोहर, सुन्दर, अपने आप में आनन्दमय, अन्य की अपेक्षा से आनन्दमय बनने For Private and Personal Use Only

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