Book Title: Pali Hindi Shabdakosh Part 01 Khand 01
Author(s): Ravindra Panth and Others
Publisher: Nav Nalanda Mahavihar
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अपस्मार / अपमार
अपसादयन्ता अञ्ञ एवमाहंसु, दी. नि. अट्ठ. 2.189; - य्य विधि., प्र. पु. ए. व. न अपसादेय्य धम्ममेव देसेय्य म. नि. 3.279; न अपसादेय्याति गेहसितवसेन कञ्चि पुग्गलं नेव उक्षिपेय्य न अवक्खिपेय्य, म. नि. अट्ठ. (उप.प.) 3.202 य्यं उ. पु. ए. व. अहञ्चेव खो पन चोदितो चोदकेन चोदकं अपसादेय्य, म. नि. 1.138; - सि अद्य., प्र. पु. ए. व. एवं वुत्ते कुणालो सकुणो तं पुण्णमुखं फुस्सकोकिलं एवं अपसादेसि, जा. अड. 5.417: स्सामि भवि., उ. पु. ए. व. भिक्खुना चोदितो चोदकेन चोदकं न अपसादेस्सामी ति चित्तं उप्पादेतं. म. नि. 1.138; तु निमि कृ. - एकस्स चेपि भिक्खुनो न पटिभासेय्य तं भिक्खुनिं अपसादेतुं पाचि, 234 तब्बा स्त्री. सं. कृ. - तेहि भिक्खुहि सा भिक्खुनी अपसादेतब्बा, पाचि. 234; - तु पु. प्रेर. का क. ना. [ अपसादयितृ] डांटने-फटकारने वाला, निन्दा या भर्त्सना करने वाला तपस्सी अञ्ञतरं समणं वा ब्राह्मणं वा नापसादेता होति दी. नि. 3.33. अपस्मार / अपमार पु. [ अपस्मार] मिरगी का रोग - अपमारो अपस्मारो, अभि. प. 325; अतेकिच्छेन वातापमारादिना रोगेन समन्नागतो निद्रापतगिलानो कथितो अ. नि. अट्ठ 2.90; वातापमाररोगेनाति वातरोगेन च अपमाररोगेन च वातनिदानेव वा अपमाररोगेन, अ. नि. टी. 2.84 वाता पु. प्र. वि. ब. व. मिरगी के दौरे तस्स वाता वलीयन्तीति तस्स हृदयं अपस्मारवाता अवत्थरन्तीति अत्थो, जा. अट्ठ. 4. 75.
अपस्सं / अपस्सन्त दिस के वर्त. कृ. का निषे. [अपश्यत् ]. शा. अ. नहीं देख रहा, अन्धा, ला. अ. अज्ञानी, मूर्ख; स्सं प्र. वि. ए. व. अपरसं अरियसच्चानि, अन्धभूतो पुथुज्जनो, थेरगा. 215 अपरसं बज्डाते मूळ्हो, बडझमानो न मुच्चतीति दी. नि. अह्न 2.373 म. नि. अड. ( मू.प.) 1 (1) 106; महानि, अट्ट, 35 तो ष. वि. ए. व. नो अजानतो नो अपस्सतो, इतिवु. 74; - तं / तानं ष. वि., ब. व. निवुतानं तमो होति., अन्धकारो अपरसतं. स. नि. 2 (2). 131; तेसं भगवन्तं अपस्सन्तानं सिया अञ्ञथत्तं, म. नि. 2.130.
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अपस्सय पु०, केवल एक स्थल में नपुं० [ अपश्रय / अपाश्रय], सिर, पीठ अथवा केहुनी को रखने के लिए सहारा, सिरहाना, गद्दी, तकिया, बिछावन तपस्वियों द्वारा प्रयुक्त कांटों से भरा बिछावन या शय्या तस्स चन्दनमयो अपस्सयो अहोति, घ. प. अ. 2.211 सत्तनो नाम तीसु दिसासु अपस्सयं
अपरिसत
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कत्वा कतमञ्चो, चूळव. अट्ठ 59 - यानि नपुं. प्र. वि., ब. व. - अपस्सेनानीति अपस्सयानि, दी. नि. अट्ठ. 3.173. अपस्सयति / अपस्सेति अप + आ + √सी का वर्त प्र. पु. ए. व. [ अपाश्रयति] सहारा लेता है, आश्रय लेता है, पीछे की ओर या पीठ के बल सहारा लेता है, किसी पर टिक कर लेट जाता है - तत्थ यं यं दिसं अल्लीयति अपरसयतीति अत्थो, सु. नि. अड. 2.182 न्ति ब. व. तेन खो परिकम्मकतं भित्तिं अपररोन्ति चूळव. 308तं वर्त, कृ. द्वि. वि. ए. व. तस्मिं अपस्सेने यथा अपस्सयन्तं विज्झति वा छिन्दति वा सत्थं ठपेति, दुक्कटं पारा अट्ट. 2.51 य्य विधि, प्र. पु. ए. व. - यो अपस्सेय्य, आपत्ति दुक्कटस्स, चूळव. 308; - यिं अद्य., उ. पु. ए. व. जनितं मे भवितं मे इति पठ्ठे अपस्सयिं जा. अट्ठ. 2.66, पाठा. अवस्सयि; - स्साय पू. का. कृ.. तेन खो पन महावने दिवाविहारगतो अपरसाय निपन्नो होति, पारा 45; तब्बा स्त्री. सं. कृ. न भिक्खवे, परिकम्मकता भित्ति अपस्सेतबा, चूळवू. 308 यनीय उपरिवत्- अपस्सयनीयद्वेन अपस्सेन नाम पारा, अह.
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2.51.
अपस्सयन / अवस्सयन नपुं अप + √सी से व्यु. क्रि. ना. [अवश्रयण] अवलम्ब सहारा, निर्भरता, विश्वास सप्पुरिसावस्सयोति बुद्धादीनं सप्पुरिसानं अवस्सयनं सेवनं भजनं, न राजानं अ. नि. अट्ठ. 2.282; पाठा. अवस्सयनं; अपस्सेनानीति अपस्सयानि, दी. नि. अट्ठ. 3.173. अपस्सयपीठक नपुं. तत्पु. स. [ अवश्रयपीठक]. सिर को टिका देने वाले उपकरण से युक्त आसन एकच्चे मन्ते विचारेत्वा सयं पक्कसालद्वारे अपस्सयपीठके निसीदित्वा कथेसि, जा. अट्ठ 3.206.
अपरसयिक त्रि. अपरसय से व्यु बिछावन, शय्या या तकिया का सहारा लेकर लेटा हुआ कण्टकापस्सविकोपि होति कण्टकापस्सये सेव्यं कप्पेति दी. नि. 1.150; एकपस्सयिकोपि होति रजोजल्लधरो तदे.. अपरिसत त्रि, अप + √सी का भू. क. कृ. [अपाश्रित]. सहारा, आश्रय या अवलम्बन लिया हुआ, किसी का सहारा लेकर लेटा हुआ, किसी पर आश्रित, किसी पर भरोसा रखने वाला तो पु. प्र. वि. ए. व. तात माणवको एसो. तालमूलं अपस्सितो, जा. अट्ठ. 2.57; तालमूलं अपस्सितोति तालक्खन्धं निस्साय ठितो, तदे, अनुभोत्वान तं पुत्रं सककम्मं अपस्सितो, अप० 1.101; - ता' स्त्री०, प्र. वि., ए.
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