________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
पे. [अवधिरपि बधिरो विमा कोचि
अफुट्ठ
445
अबन्धितब्बयुत्तक अफासुविहारायाति तदुभयेन न सुखविहारत्थाय, महानि. सन्धिभागों वाला - विकटोति विकटपादो, अबद्धसन्धी तिपि अट्ठ. 52.
वुत्तं, जा. अट्ट, 7.320. अफुट्ठ त्रि., Vफुस के भू. क. कृ. फुट्ट का निषे. [अस्पृष्ट], अबद्धसीमविहार त्रि., ब. स. [अबद्धसीमविहार], ऐसे विहार
शा. अ. नहीं स्पर्श किया गया, ला. अ. अप्रभावित, पूरी में रहने वाले भिक्षु, जिसकी सीमा सङ्घ द्वारा निर्धारित नहीं तरह मुक्त - हो पु., प्र. वि., ए. व. - धीरोपि तथेव की गई हो - रा पु., प्र. वि., ए. व. -- ये अबद्धसीमविहारा, मरणफरसेन फुट्ठो अफुट्ठो नाम नत्थि, म. नि. अट्ठ. (म.प.) तेसु भिक्खू एकज्झं सन्निपातेतब्बा, छन्दारहानं छन्दो 2.217; - टुं नपुं., द्वि. वि., ए. व. - अफुटु फुसितब्ब, म. आहरापेतब्बो, महाव. अट्ठ. 306. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.152.
अबद्धसीमा स्त्री., कर्म. स. [अबद्धसीमा], किसी भी सङ्घकर्म अफुसिं (फुस का अद्य, उ. पु., ए. व., मैंने स्पर्श किया, के लिये निर्धारित वह सीमा, जिसकी न कोई निश्चित हद अनुभव किया, साक्षात्कृत किया - मातरा चोदितो सन्तो, रहती है और न किसी उत्तिदुतियकम्म द्वारा पुष्टि भी अफुसिं सन्तिमुत्तमं, थेरीगा. 328.
आवश्यक होती है जैसे ही भिक्षुसङ्घ उपोसथ या किसी भी अफुस/अफुस्स त्रि., Vफुस के सं. कृ., फुस्स का निषे. सङ्घकर्म के लिए एकत्रित होता है तो यह सीमा स्वतः बन [अस्पृश्य], अछूत, स्पर्श या अनुभव न किये जाने योग्य - जाती है. गामसीमा, सत्तब्भन्तरसीमा तथा उदकुक्खेपसीमा सानि नपुं., प्र. वि., ब. क. - सब्बेपेते. .... गुणा एकरसा इसी के अन्तर्गत आती है - य सप्त. वि., ए. व. - अरोगा अकुप्पा अपरूपक्कमा अफुसानि किरियानि. मि. प. सङ्गमज्झे ओसरन्तीति अबद्धसीमाय कथितं, बद्धसीमायं पन 156.
वसन्ता अत्तनो वसनट्ठानेयेव उपोसथं करोन्ति, म. नि. अट्ठ. अफेग्गुक त्रि०, ब. स. [अफल्गुक], सारहीन या खोरवली (म.प.) 2.171. लकड़ी से रहित, ठोस या अच्छी लकड़ी वाला - का स्त्री., अबधिर त्रि., बधिर का निषे. [अबधिर], वह, जो बहरा नहीं प्र. वि., ए. व. - सा सिंसपा, सारमया अफेग्गुका, कुहिं है - रो पु., प्र. वि., ए. व. - अबधिरोपि बधिरो विय होहि, ठिता उप्परितो न धंसती ति, जा. अट्ठ. 3.279.
जा. अट्ट. 6.4; केवलम्हि इध इत्थीपि पुरिसोपि यो कोचि अफेग्गुसार पु./नपुं, व्य. सं., हंसावती के एक स्थविर विज्ञ अनन्धो अबधिरो अन्तोद्वादसहत्थे ओकासे ठितो ... द्वारा रचित एक रचना का नाम - रं द्वि. वि., ए. व. - करोति, पारा. अट्ठ. 2.197. तत्थेव अञ्जतरो थेरो अफेग्गुसारं नाम गन्धं अकासि, सा. अबन्धन त्रि., ब. स. [अबन्धन], शा. अ. बिना बन्धनों वं. 45(ना.).
वाला (भिक्षापात्र)- नो पु., प्र. वि., ए. क. - ऊनपञ्चबन्धनो अबद्ध त्रि., Vबन्ध के भू. क. कृ. का निषे. [अबद्ध], नहीं नाम पत्तो अबन्धनो वा एकबन्धनो वा द्विबन्धनो वा तिबन्धनो बंधा हुआ, बन्धनों से मुक्त - द्धो पु., प्र. वि., ए. व. - मिगो वा चतुबन्धनो वा, पारा. 369; ला. अ. भवबन्धनों या अरजम्हि यथा अबद्धो, येनिच्छकं गच्छति गोचराय, सु. नि. संयोजनों से मुक्त - नो पु., प्र. वि., ए. व. - न सो सोचति 39; अबद्धोति रज्जुबन्धनादीहि अबद्धो, एतेन विस्सत्थचरियं नाज्झति, छन्नसोतो अबन्धनो, स. नि. 954; -- ना उपरिवत्, दीपेति, सु. नि. अट्ठ. 1.66; - स्स पु., ष. वि. ए. व. - ब. व. - तादी तत्थ न रज्जन्ति, छिन्नसुत्ता अबन्धना ति, असितस्साति अबद्धस्स. म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.70; - पित्त थेरगा. 282; - नं द्वि. वि., ए. व., उपरिवत् - अनीघं पस्स नपुं., नहीं बंधा हुआ पित्त, खुला हुआ पित्त - त्तं प्र. वि., आयन्तं, छन्नसोतं अबन्धनन्ति, उदा. अट्ठ. 159. ए. व. - अबद्धपित्तं मिलातबकुलपुप्फवण्णन्तिपि एक, खु. अबन्धनोकास त्रि., ब. स. [अबन्धनावकाश], वह, जिसमें पा. अट्ठ. 46; - माला स्त्री., कर्म. स. [अबद्धमाला]. खुला बन्धन के लिये कोई भी अवसर न रहे - सो पु., प्र. वि., हुआ माला का अलङ्करण - मालाति बद्धमाला वा अबद्धमाला ए. व. - अबन्धनोकासो नाम पत्तो यस्स द्वला राजिन वा, दी. नि. अट्ठ. 1.79; - मुख त्रि., ब. स., अप्रियवादी, होति, पारा. 369... बकवास करने वाला, खुले हुए मुख वाला - खो पु.. प्र.. अबन्धितब्बयुत्तक त्रि., वह, जिसे बांधा जाना या कारागार वि., ए. व. - मुखरो दुम्मुखो बद्धमुखो चाप्पियवादिनि, में डालना उचित नहीं है, कारागार आदि में बांधने के लिए अभि. प. 735; - सन्धि त्रि., ब. स. [अबद्धसन्धि], वह, अनुपयुक्त - का पु., प्र. वि., ब. व. - अन्धबालानं नाम जिसके शरीर के सन्धिभाग सुगठित न हो, ढीले-ढाले अवत्थुकेन वचनेन अबन्धितब्बयुत्तकापि पण्डिता पच्छाबाहं
For Private and Personal Use Only