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असमुदानित
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असम्पटिवेध
शिष्टाचार की उचित क्रिया का अभाव, सक्रियता का अभाव, संबोधित करने की उचित रीति का अभाव - रेन तृ. वि., ए. व. - ... किलेसानं असमुदाचारेन पब्बजितकिच्चं नो निप्फन्न, ध. प. अट्ठ. 2.62. असमुदानित त्रि., सं+ उ + आ + नी के भू. क. कृ. का निषे. [असमुदानीत], उचित रूप में नहीं लाया गया, धर्मपूर्वक अर्जित न किया गया - तं नपुं., द्वि. वि., ए. व. - अलद्धा वित्तं तप्पति, पुब्बे असमुदानितं, जा. अट्ट, 4.158;
असमुदानितं असम्भतं धनं... सोचति, जा. अट्ठ. 4.159. असमुप्पन्न त्रि., सं+ उ + पद के भू. क. कृ. का निषे. [असमुत्पन्न], नहीं उत्पन्न, अस्तित्व को अप्राप्त, जन्मग्रहण न किया हुआ - न्ना पु., प्र. वि., ब. व. - ... अनुप्पन्ना असमुप्पन्ना अनुद्विता असमुहिता अनुप्पन्ना अनुप्पन्नसेन सङ्गहिता, ध. स. 1042. असमूहत त्रि., सं + उ + हन के भू. क. कृ. का निषे. [असमुद्धत], पूर्ण रूप से नष्ट न किया हुआ - तो पु., प्र. वि., ए. व. - ... अस्मीति अनुसयो असमूहतो, स. नि. 2(1).119; - तुप्पन्न त्रि., कर्म स. [असमुद्धतोत्पन्न]. अविनाशित होने के कारण उत्पन्न, पूरी तरह निरुद्ध नहीं रहने के कारण उत्पत्ति को प्राप्त - नं स्त्री., वि. वि., ए. व. - धम्मतं अनतीतन्ति कत्वा असमूहतुप्पन्नन्ति वुच्चति, सु. नि. अट्ठ. 1.7. असमेक्खितत्त नपुं., सं+ आ + Vइक्ख के भू. क. कृ. का निषे. का भाव. [असमीक्षितत्व]. ठीक से समीक्षण नहीं किया जाना, उचित सोच-विचार का न होना-त्ता प. वि., ए. व. - मरीचिधम्मं असमेक्खितत्ता, मायागुणा नातिवदन्ति पज जा. अट्ठ. 7.52; तयिदं असमेक्खितत्ता युत्तायुत्तं अजानन्ता बाला ... उपगच्छन्ति, जा. अट्ठ. 7.54. असमेन्त त्रि., सं+ आ + Vइ के वर्त. कृ. का निषे०, ठीक
से नहीं आना, समग्र रूप में नहीं रहना - न्ते नपुं., सप्त. वि., ए. व. - एकस्मिंफले असमेन्ते... नत्थि, जा. अट्ठ. 2.328. असमोसरण नपुं, सं+ ओ + Vसर से व्यु., क्रि. ना. का निषे. [असमवसरण], आपस में मेल-जोल का अभाव, पारस्परिक संपर्क का अभाव - णेन तृ. वि., ए. व. - अच्चाभिक्खणसंसग्गा असमोसरणेन च, एतेन मित्ता जीरन्ति, जा. अट्ट. 5.221; ... असमोसरणेन च मित्ता जीरन्ति, जा. अट्ठ. 5.222. असम्पकम्पी त्रि., सम्पकम्पी का निषे. [असम्प्रकम्पिन], प्रकम्पित न होने वाला, नहीं हिलने-डुलने वाला, सुदृढ़,
स्थिर - म्पी पु., प्र. वि., ए. व. - ... गम्भीरनेमो सुनिखातो अचलो असम्पकम्पी, स. नि. 3(2).342. असम्पकम्पिय त्रि., सं + प +vकम्प के सं. कृ. का निषे., नहीं हिलाए-डुलाए जाने योग्य, सुदृढ़, स्थिर, विचलित या बेचैन न किए जाने योग्य - यो पु., प्र. वि., ए. व. - यथिन्दखीलो ..., चतुभि वातेहि असम्पकम्पियो, सु. नि. 231; असम्पकम्पियोति कम्पेतुं वा चालेतुं वा असक्कुणेय्यो, सु. नि. अट्ठ. 1.247. असम्पजञ नपुं.. सम्पजञ का निषे. [बौ. सं. असम्प्रजन्य], समभाव से धर्मों के प्रजानन का अभाव, अज्ञान-भाव, चित्त की जागरुकता का अभाव - शं नपुं., प्र. वि., ए. व. - मुट्ठस्सच्चञ्च असम्पजञ्जञ्च, अ. नि. 1(1).115%; असम्पजञ्जन्ति अजाणभावो, अ. नि. अट्ठ. 2.65; -किरिया स्त्री., तत्पु. स. [बौ. सं. असम्प्रजन्यक्रिया], आत्मसंयमरहित क्रिया, समभाव एवं शान्ति से रहित चित्त के द्वारा की गई क्रिया - या प्र. वि., ए. व. -- हत्थस्स कुकतत्ता असंयमो
असम्पजकिरिया हत्थुकुक्कुच्चन्ति वेदितब्बो, लीन. (दी.नि.टी.) 1.193; विशेष तात्पर्य जानने के लिए देखें 'सम्पजन' (आगे). असम्पजान त्रि., सम्पजान का निषे०, ब. स. [असंप्रज्ञान], समभावयुक्त चित्त द्वारा धर्मों का यथार्थ ज्ञान न करने वाला, स्मृति अथवा चित्त की जागरुकता से रहित, चेतना से रहित - ना पु., प्र. वि., ब. क. - मुट्ठस्सती असम्पजाना, म. नि. 1.39; - नो ए. व. - असम्पजानो उपायपरिग्गहे अनुपायपरिवज्जने च सम्मुरहति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).254; अयं असम्पजानो अभिसङ्घरोति नाम, अ. नि. अट्ठ. 2.345; - कम्म त्रि., ब. स., संप्रज्ञान के बिना कर्मों को करने वाला, अपनी चेतना के सम्प्रयोग के बिना ही कर्म करने वाला- म्म नपुं, प्र. वि, ए. व. - तत्थ असम्पजानकम्म एवं वेदितब्बं - दहरदारका मातापितूहि कतं करोमाति चेतियं वन्दन्ति, अ. नि. अट्ठ. 2.345; - मूलिका स्त्री., अज्ञान या असंप्रज्ञान से उत्पन्न - का प्र. वि., ब. व. - असम्पजानमूलिका वीसतीति असीति चेतना होन्ति, अ. नि. अट्ट. 2.346. असम्पटिवेध पु.. सम्पटिवेध का निषे., तत्पु. स. [असम्प्रतिवेध]. प्रतिवेध-ज्ञान का अभाव, गम्भीर आध्यात्मिक ज्ञानदर्शन का अभाव - धो पु., प्र. वि., ए. व. - यत्थ असम्पटिवेधो तत्थ अविज्जा, नेत्ति. 66; द्रष्ट, सम्पटिवेध एवं पटिवेध (आगे);- रस त्रि., ब. स., पूर्ण प्रतिवेधज्ञान न
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