Book Title: Pali Hindi Shabdakosh Part 01 Khand 01
Author(s): Ravindra Panth and Others
Publisher: Nav Nalanda Mahavihar

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Page 729
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 702 असुभ अशुभ-कर्मस्थानों के ग्रहण करने की विधि का विवेचन है, विसुद्धि. 1.171-188; - कम्मिकतिस्सत्थेर पु., चेतियपर्वत के महातिस्सथेर का ही दूसरा नाम - असुभकम्भिकतिस्सत्थेरसदिसे असुभभावनारते कल्याणभित्ते । सेवन्तस्सापि कामच्छन्दो पहीयति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).292; -- ज्झान नपुं.. कर्म. स. [अशुभध्यान], अशुभ माने जाने वाले कर्मस्थानों पर चित्त की एकाग्रता - नं द्वि. वि., ए. व. - तं असुभझानं भावेति, ध. प. अट्ठ. 2.320; - नानं ष. वि., ब. व. - यदि एवं या असुभज्झानानं अप्पमाणारम्मणता वुत्ता ..., विसुद्धि. 1.109; - दस्सन नपुं.. तत्पु. स. [अशुभदर्शन], अशुभ या अमङ्गलदायक का दर्शन - नं प्र. वि., ए. व. - असुभदस्सनम्पि सात्थं, म. नि. अट्ट. (मू.प.) 1(1).265; - निमित्त नपुं, कर्म, स., चित्त की एकाग्रता लाने में कारण बनने वाला अशुभ आलम्बन - तं प्र. वि., ए. व. - असुभनिमित्तं नाम असुभम्पि असुभारम्मणम्पि, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).292; - भावना स्त्री., तत्पु. स., दस प्रकार के अशुभ कर्मस्थानों में किसी एक का ग्रहण कर की जा रही ध्यानभावना - ना प्र. वि., ए. व. - ब्रह्मविहारभावना असुभभावना आनापानस्सतिभावना च...., म. नि. टी. (म.प.) 2.62; - य तृ. वि., ए. व. - असुभभावनाय वण्णं भासति, स. नि. 3(2).390; - भावनानुयोग पु., तत्पु. स. [अशुभभावनानुयोग], दस अशुभों की आलम्बन को रूप में ग्रहण कर ध्यान-भावना का अभ्यास - गो प्र. वि., ए. व. - अपिच छ धम्मा... असुभभावनानुयोगो इन्द्रियेसु गुत्तद्वारता भोजने मत्तञ्जता कल्याणमित्तता सप्पायकथाति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).292; - भावनारत त्रि., तत्पु. स., अशुभों को कर्मस्थान बनाकर ध्यानभावना में लगा हुआ - ते पु., सप्त. वि., ए. व. - असुभकम्मिकतिस्सत्थेरसदिसे असुभभावनारते कल्याणमित्ते सेवन्तस्सपि कामच्छन्दो पहीयति, दी. नि. अट्ट, 2.331; - लक्ख ण नपुं., तेल. की उन चौदह गाथाओं के समुच्चय का शीर्षक, जिनमें शरीर के अशुभलक्षणों पर प्रकाश डाला गया है, तेल. 64-77; - सज्ञा स्त्री., तत्पु. स. [अशुभसंज्ञा], "यह शरीर अशुभ है" इस प्रकार का संज्ञा ज्ञान, शरीर की अशुभ अनुपश्यना से उत्पन्न ज्ञान, सात संज्ञाओं में से एक - सत्त सञ्जा- अनिच्चसा , अनत्तसा , असुभसा ... निरोधसञ्जा, दी. नि. 3.199; ... असुभानुपस्सनाञाणे सजा असुभसा , दी. नि. अड. 3.203; - सजी त्रि., अशुभ की अनुपश्यना कर 'शरीर अशुभ है, तुच्छ है', इस प्रकार का ज्ञान पाने वाला - असुर जिनो पु., प्र. वि., ब. व. - ते निब्बापेन्ति रागग्गि, निच्च असुभसञ्जिनो, इतिवु. 66; तत्थ असुभसञिनोति द्वत्तिसाकारवसे न चे व उद्धव मातकादिवसेन च असुभभावनानुयोगेन असुभसञिनो, इतिवु. अट्ठ. 261; - समापत्ति स्त्री., तत्पु. स. [अशुभसमापत्ति], अशुभ कर्मस्थानों को ग्रहण कर ध्यान की प्राप्ति - या ष. वि., ए. व. - आदिस्स आदिस्स असुभसमापत्तिया वण्णं भासति, पारा. 81; - भाकार पु., तत्पु. स. [अशुभाकार], अशुभ या अमङ्गलमय स्वरूप - रं द्वि. वि., ए. व. - ... असुभं असुभाकारं अनुपस्सका हुत्वा विहरथ, इतिवु. अट्ठ. 233; - भानुपस्सी/भानुपस्सिनो पु., प्र. वि., ब. व., शरीर आदि में अशुभ की अनुपश्यना करने वाले - असुभानुपस्सी, .... कायस्मिं विहरथ, इतिवु. 58; असुभानुपस्सीति असुभं अनुपस्सन्ता ... कायस्मिं असुभं असुभाकार अनुपस्सका हुत्वा विहस्थ, इतिवु. अट्ठ. 233; असुभानुपस्सी कायस्मि, . ... इतिवु. 59; एथ तुम्हे, ... असुभानुपस्सिनो काये विहरथ. म. नि. 1.420; - पस्सिं पु., द्वि. वि., ए. व. - असुभानुपस्सिं विहरन्तं, ..., ध. प. 8; असुभानुपस्सिन्ति दससु असुभेसु अञ्जतरं असुभं परसन्तं... केसे असुभतो पस्सन्तं ....ध. प. अट्ठ. 1.45; - भारम्मण नपुं., तत्पु. स. [अशुभालम्बन], ध्यान की भावना के क्रम में आलम्बन के रूप में गृहीत अशुभ - णं प्र. वि., ए. व. - असुभनिमित्तं नाम असुभम्पि असुभारम्मणम्पि, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).292; - भावज्जना स्त्री., तत्पु. स., अशुभ आलम्बन पर चित्त की एकाग्रता - नादीहि तृ. वि., ब. व. - ... असुभावज्जनादीहि उपायेहि निवारये, स. नि. अट्ठ. 3.103; -- भासुखभावादि पु., अशुभ एवं असुख आदि से रहित अवस्थाएं या स्थितियां - दीनं ष. वि., ए. व. - सुभसुखभावादीनं पक्खेपस्स, ... असुभासुखभावादीनं अपनयनस्स च पहानं वुत्तं, दी. नि. अट्ठ. 2.313-14; असुभासुखभावादीनन्ति एत्थ पन आदिसद्देन अमनुअनिच्चतादीनं, लीन. (दी.नि.टी.) 2.274. असुर पु.. [असुर], क. (केवल ब. व. में ही प्रयुक्त होने पर) सुरों या देवों के प्रतिपक्षी या शत्रु, दानव, पूर्वकाल में देवता के रूप में रह चुके दैत्य - पुब्बदेवा सुररिपू असुरा दानवा पुमे, अभि. प. 14; ख.1. व्यु., 'हमने सुरा नहीं पी ऐसा कहने के कारण असुर नाम पाने वाले देवता - ... ताता न सुरं पिविम्ह, न सुरं पिविम्हा ति आहंसु, ततो पट्ठाय असुरा नाम जाता, स. नि. अट्ठ. 1.295; ख.2. सुरों अर्थात् देवताओं के शत्रु असुर - सुरा नाम देवा, तेसं पटिपक्खाति For Private and Personal Use Only

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