Book Title: Pali Hindi Shabdakosh Part 01 Khand 01
Author(s): Ravindra Panth and Others
Publisher: Nav Nalanda Mahavihar
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असुचि
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असुत्तमयिक जेगुच्छपटिक्कूल त्रि., द्व. स., अपवित्र, घृणित एवं प्रतिकूल नि. अट्ठ. 3.12; असुचिसुखन्ति कायासुचिसन्निस्सितत्ता - ले पु., सप्त. वि., ए. व. - यथा नाम ... सङ्काररासिम्हि किलेसासुचिसन्निस्सितत्ता च असुचिसन्निस्सितसुखं, अ. असुचिजेगुच्छियपटिकूलेपि सुचिगन्धं पदुमं जायेथ, ध. प. नि. टी. 3.13-14; -- सेदयूस पु., कर्म. स. [अशुचिस्वेदयूष]. अट्ठ. 1.250; - छान नपुं.. कर्म. स. [अशुचिस्थान]. पसीने का अपवित्र बहाव, पसीने का गन्दा पानी - सो प्र. अपवित्र स्थान, गन्दी जगह - ने सप्त. वि., ए. व. - वराहो वि., ए. व. - नवनवुतिया लोमकूपसहस्सेहि असुचिसेदयूसो वासुचिट्ठाने छड्डेत्वा सुद्धभोजनं, सद्धम्मो. 378; - तर त्रि., पग्घरति, विसुद्धि. 1.186. तुल. विशे॰ [अशुचितर], और भी अधिक अपवित्र, अपेक्षाकृत असुञ त्रि., निषे. तत्पु. स. [अशून्य], नहीं खाली, नहीं अधिक अपवित्र - रानि नपुं., प्र. वि., ब. क. - असुचितरानिरिक्त, नहीं रहित, अवियुक्त, जुड़ा हुआ, लगातार रूप में ... दुग्गन्धतरानि च पूतिकतरानि च म. नि. 2.185; भरा हुआ - ओ पु., प्र. वि., ए. व. - असुओ लोको असुचितरानि ... दुग्गन्धानि च पूतीनि च, इदानि पन अरहन्तेहि अस्सा ति, दी. नि. 2.114; असुञो... नळवनं असुचितरानि चेव दुग्गन्धतरानि...., म. नि. अट्ट (म.प.) सरवनं विय निरन्तरो अस्स, दी. नि. अट्ठ. 2.162; - आ 2.156; - निस्सवण त्रि., ब. स. [अशुचिनिस्रवण], मल ब. व. - अविवित्ताति असुञा, उदा. अट्ठ. 346; - गन्ध को या अपवित्र तरल को बहाता रहने वाला, गन्दगी को त्रि., ब. स. [अशून्यगन्ध], किसी विशेष प्रकार की गन्ध से टपकाने वाला - णं पु., द्वि. वि., ए. व. - दुक्खोदयं युक्त, गन्ध से अविरहित - न्धो पु.. प्र. वि., ए. व. - असुचिनिस्सवणं अनत्तं, तेल. 45; - पटिपीळित त्रि., मनुञ्जगन्धेन असुगन्धो, जिना. 83; - त्त नपुं॰, भाव. तत्पु. स. [अशुचिप्रतिपीडित], अपवित्रता से पीड़ित, गन्दगी [अशून्यत्व]. अशून्यता, अशून्य-भाव, अभावरहित होने की से परेशान - तो पु.. प्र. वि., ए. व. - असुचिपटिपीलितो दशा - तं प्र. वि., ए. व. - सुञो ... अस्थि चेविद नाम सो होति माणवको वा माणविका वा, अ. नि. 2(1).210; असुञतं यदिदं- म. नि. 3.148; एकत्तन्ति एकभावं, एक - पिण्ड पु., तत्पु. स. [अशुचिपिण्ड, मल का पिण्ड, असुञतं अत्थीति अत्थो, एको असुञभावो अत्थीति वुत्तं अपवित्रता से भरा पिण्ड - ण्डं द्वि. वि., ए. व. - ... ते होति. म. नि. अट्ठ. (उप.प.) 3.111. चक्खुसञ्जितं असुचिपिण्डं गण्ह, थेरीगा. अट्ठ. 282; - असुणन्तो /अस्सुणन्तो ।सु के वर्त. कृ.. पु.. प्र. वि., ए. पुण्ण त्रि., तत्पु. स. [अशुचिपूर्ण], मलों से भरपूर, गन्दगी व. का निषे. [अश्रृण्वत्], नहीं सुनता हुआ - पुच्छव्हि से भरा हुआ - ..., असकिं पग्धरितं असुचिपुण्णं, थेरीगा. किञ्चि असुणन्तो, सुत्वा पहे वियाकते, सु. नि. 1029; - 300; - बीभच्छ त्रि., द्व. स. [अशुचिवीभत्स]. अपवित्र एवं न्तं पु., द्वि. वि., ए. व. - अचेतनं ब्राह्मण अस्सुणन्तं, जा. घृणास्पद, गन्दा एवं घिनौना - च्छं नपुं., द्वि. वि., ए. व. अट्ठ3.20; तत्थ अस्सुणन्तन्ति अचेतनत्ताव असुणन्तं, तदे.. - ततो असुचि बीभच्छंदुग्गन्ध किमिसलं, सद्धम्मो. 603; असुणिं ।सु का अद्य., उ. पु., ए. व., मैंने सुना - एकनपुतितो - भरित त्रि., तत्पु. स., अपवित्रता से भरपूर, मलों से भरा कप्पे, यं धम्ममसुणिं तदा, अप. 1.267. हुआ - तं नपुं., प्र. वि., ए. व. - तं जण्णुमत्तम्पि असुत्तन्तविनिबद्ध त्रि., तत्पु. स., सुत्तों के अन्दर नहीं रखा असुचिभरितं होति, म. नि. अट्ठ (मू.प.) 1(1).87; - गया, बुद्ध वचनों के अन्तर्गत न आने वाला -द्धं पु./नपुं.. भावमिस्सित त्रि., तत्पु. स. [अशुचिभावमिश्रित], अपवित्रता- ट्वि. वि., ए. व. - ... असुत्तन्तविनिबद्ध पाळिविनिमुत्तं ... भाव से युक्त - ता पु.. प्र. वि., ब. व. - असचिभावमिस्सिताति अत्थो, पारा. अट्ट, 1.172; असुत्तन्तविनिबद्धन्ति सुत्तन्तेसु ताय रसगिद्धिया रसपटिलाभत्थाय अनिबद्ध, पाळिअनारुल्हन्ति अत्थो, सारत्थ. टी. 2.27. नानप्पकारमिच्छाजीवसवातअसुचिभावमिस्सिता. सु. नि. अट्ट असुत्तमय त्रि., [असूत्रमय]. सूतों या धागों से नहीं बना हुआ 1.263; -- सम्मत त्रि., अपवित्र माना गया - तं नपुं.. प्र. - यं नपुं., द्वि. वि., ए. व. - असुत्तमयं पसाधनं रजतेन वि., ए. व. - जरावसानं योब्बलं रूपं असुचिसम्मतं अप. सुत्तकिच्चं करिंसु, ध, प. अट्ठ. 1.221. 2.244; - सुख नपुं.. कर्म, स. [अशुचिसुख], अशुद्धि या असुत्तमयिक त्रि., उपरिवत् - कं पु., वि. वि., ए. व. - ... अपवित्रता में प्राप्त किया गया सुख, मलिन काम-भोगों में असुत्तमयिक सुमनपुप्फपट महारहञ्च ... आहरन्ति, पारा. प्राप्त सुख, क्लेशों आदि की मलिनता से भरा हुआ सांसारिक अट्ठ. 1.32; असुत्तमयिकन्ति कप्परुक्खतो निब्बत्तदिब्बदुस्सत्ता सुख - खं प्र. वि., ए. व. - मीळहसुखन्ति असुचिसुखं, अ. सुत्तेहि न कतन्ति असुत्तमयिक, सारत्थ. टी. 1.111.
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