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असम्मूळ्ह
असम्मूळह त्रि. सं. + √मुह के भू० क० कृ० का निषे. [असंमूढ़], मोह से मुक्त, मोह-रहित, मन की स्वच्छता एवं उज्ज्वलता से युक्त कहो पु. प्र. वि. ए. व. सीलवा सीलसम्पन्नो असम्मूहो काल्रोति दी. नि. 2.68 अ. नि. 1 ( 1 ) .74; - भाव पु.. [असंमूढभाव], मोहयुक्त अवस्था वाय च. कि. ए. क. सोनूने असम्मूहभावाय सद 1.179: विहारी त्रि. [असंमूढविहारिन्] मोह रहित होकर, जीने वाला रिनं पु. द्वि. वि. ए. व. तीहि विज्जाहि सम्पन्न, असम्मूळ्हविहारिनं अ. नि. 1 (1) 192. असम्मोदक क्रि, सम्मोदक का निषे [असम्मोदक ]. प्रसन्नता या मानसिक आनन्द न देने वाला, अमैत्रीपूर्ण व्यवहार करने वाला, अविनम्र, को पु०, प्र. वि., ए. व. असम्मोदको धद्धो असभिरूपो जा. अ. 6.241दिका स्त्री असम्मोदक से व्यु [असम्मोदिका ]. अमैत्रीपूर्ण मनोवृत्ति, आनन्द उत्पन्न न करने वाली बातचीत, सम्मोद न उत्पन्न करने वाली य तृ० / च. वि., ए. व. भिन्ने, भिक्खवे, सङ्घ अधम्मियायमाने असम्मोदिकाय वत्तमानाय ...... 462: असम्मोदिकाय वत्तमानाय, सम्मोदनकथाय अवत्तमानायाति अत्थो, महाव. अट्ठ. 407. असम्मोदिय नपुं., अप्रिय भाव, सम्मोद या प्रसन्नता को न लाने वाला यं प्र. वि., ए. व. - असम्मोदियम्पि वो अस्स, अच्चन्तं मम कारणा, जा० अट्ठ. 7.277; असम्मोदियन्ति असामग्गिय, तदे...
महाव.
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असम्मोस पु०, सम्मोस का निषे, तत्पु० स० [अविप्रमोष ], (स्मृति का ) अनाश, अतिरोभाव या अलोप विलुप्त नहीं हो जाना, अदृश्य नहीं होना साप. वि. ए. व. - सतिया असम्मोसा ते देवा तम्हा काया न चवन्ति दी. नि. 1.17; सद्धम्मस्स ठितिया असम्मोसाथ अनन्तरधानाय संवत्तति यथयिद अ. नि. 1 ( 1 ) 23: असम्मोसाय अनन्तरघानायाति वुत्तपरिपक्खनयेनेव वेदितब्ब, अ. नि. अट्ठ 1.69; - सिं वि. ए. व. सुतन्ति वचनेन सुतस्स असम्मोस दीपेति दी. नि. अ. 1.30; - सेन तृ. वि., ए. व. सेन तृ. वि. ए. व. असम्मोसेन पन सतिसिद्धि दी. नि. अड. 1.30. असम्मोसनरस त्रि., लोप या विनाश न होने देने के कार्यों को करने वाला / वाली सा स्त्री. प्र. वि. ए. व. - अपिलापनलक्खणा सति असम्मोसनरसा थ. स. अड. 167, असम्मोह पु.. सम्मोह का निषे, तत्पु, स. [असम्मोह], मोह या संभ्रम का अभाव, अज्ञान का अभाव, अमूढभाव - हं द्वि. वि., ए. व. तण्हाक्खयाधिमुत्तस्स, असम्मोहञ्च चेतसो,
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असयंकार
अ. नि. 2 ( 2 ) .89: एत्थ व एवन्ति वचनेन असम्मोहं दीपेति, दी. नि. अट्ठ 1.30; तो प.वि., ए. व. असम्मोहतो न विसयतो सु. नि. अड्ड. 1.19
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करण ि
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ब. स., अमोह को या मोह के निरोध को लाने वाला, मोहनाशक - रं नपुं. प्र. वि., ए. व. - असम्मोहकरं ठानं, नेत्तिधम्मानुलोमिक, परि, 187 ता स्त्री भाव [असंमोहत्व, नपुं.]. मोह के अभाव की दशा, मूढ़ता का न रह जाना - प्र. वि., ए.व. अमत्तता अप्पमत्तता असम्मोहता अच्छाम्मिता असारम्भिता खु. पा. अ. 24 धम्म त्रि.. ब. स. [असम्मोहधर्मन् ], मोह का अविषयीभूत, स्वभाव से ही मोह का शिकार न बनने वाला म्मो पु०, प्र. वि., ए. व. असम्मोहधम्मो सत्तो लोके उप्पन्नो बहुजनहिताय ... देवमनुस्सानन्ति म. नि. 1.27; घुर नपुं. कर्म. स. उत्तम या विशिष्ट भाव के रूप में अमोह, कुशल धर्मों में अग्रगण्य धर्म के रूप में अमोह - रं प्र. वि., ए. व. - तयिदं महासीवत्थेरेन वुत्तं असम्मोहधुरं इमस्मिं सतिपद्वानसुते अधिप्पेत म नि. अड. (भू.प.) 1 ( 1 ) . 280 सम्पजञ्ञ नपुं. कर्म. स. सम्प्रजन्य के चार प्रभेदों में चौथा, जिसमें साधक खड़े रहते, घूमते-फिरते आदि में मोह से रहित रहता है या सम्प्रजाननयुक्त रहता है प्र. वि. ए. व. तत्थ सात्थकसम्पजञ्ञ सप्पायसम्पजज्ञं गोचरसम्पजञ्ञ असम्मोहसम्पञ्ञन्ति चतुब्बिधं सम्पजञ्ञ, म. नि. अ (मू.प.) 1 ( 1 ) .264 अभिक्कमादीसु असमुव्हनमेव सम्पजज्ञ असम्मोहसम्पजञ्ञ, म. नि. टी. (मू०प०) 1 ( 1 ) 316; हात्ति त्रि. ब. स. [असम्मोहाधिमुक्त], सम्मोह नष्ट हो जाने के कारण अर्हत् अवस्था को प्राप्त अधिमुक्ति के छः स्थानों में एक तो पु०, प्र. वि., ए. व. - नेक्खम्माधिमुत्तो होति, ... असम्मोहाधिमुत्तो होति, महाव. 255; सम्मोहाभावतो असम्मोहोति च बुच्चति, महाव, अट्ठ. 344. असयंवसी त्रि., सयंवसी का निषे [अस्वयंवशी], स्वयं अपने वश में न रहने वाला, अपने सहारे न जीने वाला, पराधीन, परनिर्भर, अनाथ सी पु. प्र. वि., ए. व. तदा सो पच्चुदावत्ति, सङ्क्रुद्धो असयंवसे, दी. नि. 2.193; सङ्कुद्धो असयं वसेति... असक्कोन्तो असयंवसे असयंवसी अत्तनो वसेन अकामको हुत्वा निवत्तो, दी. नि. अट्ठ. 2.257; - सी 2 पु., प्र. वि., ब.व. महल्लका अनाथा असयंवसी. जा.
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अट्ठ. 1.322.
असयंकार त्रि, सयंकार का निषे [अस्वयंकार ], स्वयं अपने द्वारा नहीं निर्मित स्वयं अपने द्वारा अनुत्पादित,
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तञ्च पन