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अरियरुद
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अरियवण्णी अरियरुद नपुं., कर्म, स. [आर्यरुत], उत्तम वचन, सुन्दर मातिकं ठपेत्वा अयं नयो दस्सितो, विसुद्धि. 2.262; - त्तय वचन - दं द्वि. वि., ए. व. - यो चारियरुदं भासे, नपुं. द्व. स. [आर्यवंशत्रय], आर्यवंश का सदस्य होने के अनरियधम्मवस्सितो, जा. अट्ट, 5.371; अरियरुदन्ति मुखेन लिए अपेक्षित चार लक्षणों में प्रथम तीन से युक्त तीन प्रकार अरियवचनं सुन्दरवचनं भासति, जा. अट्ठ. 5.372. के आर्यवंशीय-भिक्षु - ये सप्त. वि., ए. व. - इति अरियरूप नपुं., तत्पु./कर्म. स. [आर्यरूप], आर्यजनों की अनवज्जसीलब्बतगुणपरिसुद्धसब्बसमाचारो पोराणे वाणी अथवा उनका आचरण - पं प्र. वि., ए. व. - अरियवंसत्तये पतिद्वाय, विसुद्धि. 1.57; - देसना स्त्री., अरियरूपं महाभूतानं उपादायाति? कथा. 402; तत्थ अरियानं तत्पु. स., अरियवंससुत्त का उपदेश - य तृ. वि., ए. व. रूपं, अरियं वा रूपन्ति अरियरूपं, कथा. अठ्ठ. 239; - कथा - यथा च अरियवंसदेसनाय चत्तारोमे, भिक्खवे, अरियवंसा स्त्री., कथा. के एक वर्ग की चौथी कथा का शीर्षक, कथा. अग्गा रत्तचा वंसा , म. नि. अट्ट, (मू.प.) 1(1).247; 402-403; अरियरूपकथा निद्विता, कथा. 403.
- पटिपदा स्त्री., तत्पु. स., अरियवंससुत्त में उपदिष्ट अरियवंस' पु., कर्म. स./तत्पु. स. [आर्यवंश], शा. अ. मार्ग या पद्धति - दं द्वि. वि., ए.व. - भिक्खूनं उत्तम, कुल-परम्परा, ला. अ. 1. बुद्धों, प्रत्येकबुद्धों एवं पच्चयसन्तोसदीपकं अरियवंसपटिपदं कथेसि, जा. अट्ठ. अर्हतों की गुरुशिष्य-परम्परा - सो प्र. वि., ए. व. - 3.292; अहं चन्दोपमप्पटिपदञ्चेव अरियवंसप्पटिपदञ्च एकस्मिं किर गामे अरियवंसो होति, विसुद्धि. 1.64; - सा कथेन्तो..... ध. प. अट्ठ. 1.342; - सुत्त नपुं.. अ. नि. के ब. व. - चत्तारो मे, भिक्खवे, अरियवंसा अग्गा रत्ता एक सुत्त का शीर्षक, अ. नि. 1(2)32-34; - सुत्तपटिसंयुत्ता वंसा पोराणा असंकिण्णा असंकिण्णपुब्बा, न संकीयन्ति, स्त्री., प्र. वि., ए. व., तत्पु. स., अरियवंस-सुत्त से जुड़ी हुई न संकीयिस्सन्ति, अप्पटिकुठ्ठा समणेहि ब्राह्मणेहि विनंहि, -- अरियवंसोति अरियवंससुत्तपटिसंयुत्ता धम्मकथा, विसुद्धि. अ. नि. 1(2).32; म. नि. अट्ट (मू.प.) 1(1).247; अनेके च महाटी. 1.88; - सानुपालक त्रि., [आर्यवंशानुपालक]. कुसले धम्मेति... चतस्सो पटिसम्भिदा चतयोनिपरिच्छेदकजाणं आर्यवंशीय होने के लिए आधारभूत चार बातों का पालन चत्तारो अरियवंसा, चत्तारि वेसारज्जाणानि, उदा. अट्ठ. करने वाला - को पु., प्र. वि., ए. व. - चीवरादिसु 273; ला. अ. 2. दी. नि. एवं म. नि. के अरियवंस-सुत्त सन्तुट्ठोरियवंसानुपालको, सद्धम्मो. 474; - सालङ्कार पु., में निर्दिष्ट भिक्षुओं की वह परम्परा, जिसमें चार प्रकार के आणाभिवंस नामक म्यां मा के एक भिक्षु की रचना - रं द्वि. वि., उत्तम आचरण हों - अरियवंसोति अरियवंससुत्तपटिसंयुत्ता ए. व. - अरियवंसालङ्कारं नाम गन्धञ्च अकासि, सा. वं. 124. धम्मकथा, विसुद्धि. महाटी. 1.88.
अरियवंसिक त्रि., अरियवंससुत्त का उपदेशक - के पु०, अरियवंस पु., म्या-मा के कुछ स्थविरों के लिए प्रयुक्त द्वि. वि., ब. व. - मिच्छाजीवानं उस्सन्नट्ठाने अरियवंसिके नाम, क. उत्तराजीव के शिक्षक का नाम - सो पन पेसेत्वा अरियवंसं कथापेन्ति, दी. नि. अट्ठ. 2.102; अ. नि. रामञरद्ववासिनो अरियवंसथेरस्स सद्धिविहारिको, सा. वं. 37; ख. पन्द्रहवीं सदी की पागान (म्यां-मा) की छपदशाखा । अरियवचन नपुं, तत्पु./कर्म. स. [आर्यवचन], उत्तम का अनुयायी तथा मणिसारमञ्जूसा, मणिदीप, गन्धाभरण, जनों अथवा बुद्धों, प्रत्येकबुद्धों एवं अर्हतों का वचन, उत्तम महानिस्सर एवं जातकविसोधन नामक पांच ग्रन्थों का वचन - नं प्र. वि., ए. व. - अरियरुदन्ति मुखेन अरियवचनं लेखक एक थेर - सो च अरियवंसथेरो मणिदीपं नाम सुन्दरवचनं भासति, जा. अट्ठ. 5.372. गन्धं गन्धाभरणञ्च जातकविसोधनञ्च पाळिभासाय अकासि. अरियवटुम नपुं, कर्म. स. [आर्यवर्मन]. उत्तम मार्ग, आर्यों सा. वं. 92-93; - कथा स्त्री., तत्पु. स., अरियवंससुत्त का द्वारा गृहीत मार्ग, बुद्धों, अर्हतों का मार्ग - मानि प्र. वि., उपदेश - थं द्वि. वि., ए. व. - जनपदविहारं गन्त्वा ब. व. - इमे चत्तारो अरियवंसा अरियतन्तियो अरियपवेणियो पणीतपरिक्खारे भिक्खू दिस्वा अरियवंसकथं कथेत्वा. ..... अरियजसा अरियवटुमानीति सुत्तन्तं विनिवढेत्वा .... अ. जा. अट्ठ. 2.365; - ठान नपुं., तत्पु. स., वह स्थान, जहां नि. अट्ठ. 2.279. अरियवंससुत्त का उपदेश दिया जा रहा हो-ने सप्त. वि., अरियवण्णी त्रि., ब. स. [आर्यवर्णिन], आर्यों जैसे स्वरूप ए. व. - अरियवंसकथाठाने लङ्कादीपे खिले पिच, म. वं. वाला, सुन्दर रूप वाला - ण्णी पु., प्र. वि., ए. व. - 36.38; - यं सप्त. वि., ए. व. - अरियवंसकथायं पन ..... दुब्बण्णरूपं तुवमरियवण्णी, पुरक्खत्वा पञ्जलिको नमस्ससि,
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