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अविनिभोग
- त्ता स्त्री. प्र. वि. ए. व. तदा अविनिष्णुत्ता तेहि धम्मेहि अयं सञ्ञा, सज्ञा, इदं विश्राणं विसुद्धि 2.64; अविनिष्युत्ताति अवियुक्ता विसुद्धि महाटी. 2.72: त्तानं पु. ष. वि., ब. व. लक्खणादीहि पन अत्तना अविनिभुत्तानं धम्मानं अनुपालनलक्खणं जीवितिन्द्रिय, ध.
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स. अट्ठ. 168.
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अविनियोग 1. पु. वि नि + √भुज से व्यु. क्रि. ना. का निषे [ अविनिर्भोग], अपृथक्करण एक से दूसरे को अलग नहीं करना, अविभाजन गो प्र. वि. ए. व. विसु अभावो अविनियोगो विसुद्धि. महाटी. 2.238 अविनियोगवसेन रूपं एतेसं अत्थीति रूपिनो, ध० स० अट्ठ. 94 2. त्रि विभाजन या बिलगाव से रहित, दूसरे से अलग न किया हुआ, अविभाजित - गं नपुं, द्वि. वि., ए. व. - रूपवेदनादीसु कञ्चि एकधम्मम्पि अविनिभोगं कत्वा.... विभ, अट्ठ. 487; - गानि ब. क. एक घंटे अविनिष्भोगानि कत्वा निविखपति पारा. अट्ठ. 2.267-68; पच्चुपद्वान त्रि. ब. स. [अविनिर्भोगप्रत्युपस्थान], विभाजन के अभाव को प्रकट करने वाला, अविभाजन का प्रकाशक नं नपुं. प्र. वि., ए. व. नमन लक्खणं नाम, सम्पयोगरस अविनिब्भोगपच्चुपट्ठानं विञ्ञाणपदद्वानं, विसुद्धि. 2.157; रूप नपुं. कर्म. स. [ अविनिर्भोगरूप], ऐसे रूपधर्म, जो एक दूसरे से अलग-अलग होकर क्रियाशील नहीं होते, समूह में रहकर क्रियाशील रूपधर्मपं नपुं. प्र. वि., ए. व. वण्णो गन्धो रसो ओजा भूतचतुक्कञ्चेति अद्वविधम्पि अविनियोगरूपं अभि. घ. स. 44 अविनियोगरूपमेव जीवितेन सह जीवितनवकन्ति पवुच्चति, अभि. घ. स. 46: अविनियोगरूपं कत्थचिपि अञ्ञमञ्यं विनिभुज्ञ्जनस्स विसुं विसुं पवत्तिया अभावतो, अभि. ध. वि. 183; - सद्द पु. कर्म, स. [अविनिर्भोगशब्द ], रहस्यमय शब्द या आवाज, सुस्पष्ट रूप से न पहचानने योग्य शब्द, ऊँचा शब्द हं द्वि. वि. ए. व. पत्थटत्ता महन्तं अविनिब्भोगसद करोन्ता, म. नि. अट्ट (म.प.) 2.123; अङ्करत्तसमये सुतं निरानक अविनियोगसदं आरम्भ कथेसि,
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जा. अट्ठ. 3.379.
अविनीत त्रि वि + √नी के भू. क. कृ. विनीत का निषे. [अविनीत], अनियन्त्रित, नियन्त्रण के बाहर, वश में न रहने वाला, दमन न किये जाने योग्य अप्रशिक्षित ता पु. प्र. वि., ब. व. द्वे हत्थिदम्मा वा अस्सदम्मा वा गोदम्मा वा अदन्ता अविनीता, म. नि. 3.171; तं नपुं. प्र. वि., ए.
अविपक्कन्त
व. यानं अदन्तं अकारितं अविनीतं उप्पथं गण्हाति, महानि. 106 तो पु०, प्र. वि., ए. व. अतना अदन्तो अविनीतो अपरिनिब्बुतो परं दमेस्सति विनेस्सति परिनिब्यापेरसती ति म. नि. 1.56: असिक्खितविनयताय अविनीतो म.नि. अड. (मु.प.) 1 ( 1 ).202. अविन्दन्त त्रि, √विद के वर्त. कृ. का निषे [ अविन्दत्], प्राप्त न करता हुआ, नहीं पाता हुआ, अनुभव न करता हुआ न्तो पु. प्र. वि. ए. व. अनिब्बिसं तं जाणं अविन्दन्तो अलभन्तोयेव सन्धाविरसं संसरि ध. प. अड. 2.71 न्तियो स्त्री. प्र. वि. ब. व. ता तस्स सरीरसम्फस्स अविन्दन्तियो हुत्वा .... जा. अट्ठ. 6.10. अविन्दित्त्वा विद के पू. का. कृ. का निषे, नहीं प्राप्त कर के अलवा अलभित्वा अनधिगत्या अविन्दित्या अप्पटिलभित्वाति, ... चूळनि० 235.
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अविन्दिय त्रि., √विद के सं. कृ. का निषे。, नहीं प्राप्त करने योग्य यं नपुं. द्वि. वि. ए. व. तं अविन्दियं विन्दतीति - अविज्जा विसुद्धि. 2.155; धम्मे धरमानकदेव खीणासव विञ्ञाणवसेन इन्दादीहि अविन्दियं वदामि म. नि. अट्ट (मू.प.) 1(2). 22.
अविन्देय्य त्रि, उपरिवत् य्यो पु. प्र. वि. ए. व. अननुविज्जोति असविज्जमानो वा अविन्देथ्यो वा म. नि. अट्ठ. ( मू.प.) 1 (2). 22. अविपक्क त्रि वि + √पच के भू० क० कृ० का निषे. [ अविपक्व ] नहीं पका हुआ अकुसलकम्मसमादानं उपचितं अविपक्कं विपाकाय पच्चुपट्ठितं, नेत्ति 81; अविपक्कन्ति न विपक्कविपाक नेति, अड. 288 विपाक त्रि ब. स. [अविपक्वविपाक] परिपक्व होने की अवस्था को अप्राप्त विपाक को अप्राप्त कं नपुं. प्र. वि., ए. व. पुब्बे पापकम्म कतं अविपक्कविपाक अ. नि. 1 ( 2 ) 228 - का पु. प्र. वि. ब. क. अतीता अविपक्कविपाका धम्मा एकच्चे अत्थि, कथा. 131; अविपक्कविपाकधम्मा एकच्चेति इदं यस्मा येसं सो अविपक्कविपाकानं अत्थितं इच्छति... एकदेसं अविपक्कविपाकाति विप्पकतविपाका वुच्चन्ति .. ताव तं विप्यकतविपाक नाम होति. कथा. अड. 152-53. अविपक्कन्त त्रि वि + + कम के भू० क० कृ० का निषे. [ अविप्रक्रान्त], कहीं दूसरी ओर नहीं गया हुआ, अचल, स्थिर - न्ता पु०, प्र. वि., ब. व. - सकेसु सकेसु आसनेसु ठिता अविपक्कन्ता दी. नि. 2.154; अविपक्कन्ताति अगता, दी. नि. अट्ठ. 2.208.
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