Book Title: Pali Hindi Shabdakosh Part 01 Khand 01
Author(s): Ravindra Panth and Others
Publisher: Nav Nalanda Mahavihar

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Page 695
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir असंखत 668 असंखिय असंखत त्रि., सं. +vकर के भू. क. कृ. का निषे. [असंस्कृत], शा. अ. हेतु एवं प्रत्ययों से उत्पन्न नहीं किया हुआ, ला. अ. हेतु-प्रत्ययों से अनुत्पन्न तथा स्वयं भी विपाक को उत्पन्न न करने वाला लोकोत्तर धर्म निर्वाण (मार्ग, प्रतीत्यसमुत्पाद एवं आकाश) - तं' नपुं., प्र. वि., ए. व. -- असङ्घतं शिवममतं सुदुद्दसं, अभि. प. 7; असङ्घतं अमतं अनासवञ्च, नेत्ति. 46; - तं पु./नपुं., द्वि. वि., ए. व. - असङ्घतञ्च ... देसेस्सामि असङ्घतगामिञ्च मग्गं, स. नि. 2(2).334; - तस्स पु., ष. वि., ए. व. - तीणिमानि, भिक्खवे, असङ्घतस्स असङ्घतलक्खणानि ... न उप्पादो पआयति, न वयो पञआयति, न ठितस्स अञथत्तं पञ्चायति .... अ. नि. 1(1).177; अट्ठमे असङ्घतस्साति पच्चयेहि समागन्त्वा अकतस्स. अ. नि. अट्ठ. 2.135; - तो पु., प्र. वि., ए. व. - निरोधो असङ्घतो, नेत्ति. 15; - ता स्त्री., प्र. वि., ए. व. - विमुत्त्यसङ्घता धातु सुद्धि-निब्बुतियो सियुं, अभि. प.9;-गामी त्रि., [असंस्कृतगामिन], असंस्कृतधर्म निर्वाण की ओर ले जाने वाला - मिं पु., द्वि. वि., ए. व. - असङ्घतञ्च, वो, भिक्खवे देसेस्सामि असङ्घतगामिञ्च मग्गं, स. नि. 2(2).334; - तत्त नपुं., भाव॰ [असंस्कृतत्व], हेतु-प्रत्ययों द्वारा उत्पादित न होना - त्ता प. वि., ए. व. -- असङ्कतत्ता धम्मस्साति, मि. प. 251; - धातु स्त्री., कर्म. स. [असंस्कृतधातु]. हेतु प्रत्ययो द्वारा अनुत्पादित - वे इमा... धातुयो सङ्खताधातु असङ्घताधातु, म. नि. 3.110; - पञ्जत्ति स्त्री., तत्पु. स. [असंस्कृतप्रज्ञप्ति]. असंस्कृत धर्मों का प्रकाशन या अभिव्यक्ति - असङ्घतधम्मस्स पञआपना असङ्घतपत्ति नाम, पु. प. अट्ठ. 29; भूमिपति असङ्घतपत्ति च विज्जमानपञत्तियेव, पु. प. अट्ठ. 29; - संयुत्त नपुं., स. नि. के उस संयुत्त का शीर्षक, जिसमें असंस्कृत धर्म निर्वाण तथा उसका साक्षात्कार कराने वाले मार्ग का उपदेश दिया गया है, लोकोत्तर-धर्म तथा उसकी ओर ले जाने वाले मार्ग का प्रकाशक स. नि. का एक खण्ड, स.. नि. 2(2).334-344; लोकुत्तराति लोकुत्तरत्थदीपका असङ्घतसंयुत्तादयो, स. नि. अट्ठ. 3.320; - तारम्मण त्रि., ब. व. [असंस्कृतालम्बन], असंस्कृत धर्म निर्वाण को अपना आलम्बन बनाने वाला - णो पु., प्र. वि., ए. व. - विमोक्खो असङ्घतारम्मणो च ... निब्बानधातूति, नेत्ति. 104. असंखरान त्रि., सं + कर के वर्त. कृ. का निषे. [असंस्कुर्वाण], तीन प्रकार के कर्म अभिसङ्घारों में से किसी एक से भी अभिसंस्कृत न करने वाला - नो पु., प्र. वि., ए. व. - असङ्घरानो सतिमा अनोको, स. नि. 1(1).148; असङ्घरानोति तयो कम्माभिसङ्घारे अनभिसङ्घरोन्तो, स. नि. अट्ठ. 1.165. असंखात त्रि., सं. + Vख्या के भू. क. कृ. का निषे. [असंख्यात], सम्यक् रूप में अविचारित, उचित रूप में अचिन्तित - येसञ्चेतं असवातं, जा. अट्ठ. 4.4; अ सम्पि येसञ्चेव असङ्घातं अवीमंसितं, जा. अट्ठ. 4.5. असंखार त्रि., संखार का निषे., ब. स. असंस्कार], शा. अ. संस्कार-स्कन्ध से रहित - रो पु.. प्र. वि., ए. व. - अयं सो अरूपी अवेदनो असञी असङ्खारो... समनुपस्ससी ति, स. नि. 2(1),102; ला. अ. स्वतःस्फूर्त चित्त, स्वतःप्रवृत्त - रं नपुं., वि. वि., ए. व. - असङ्घारं ससङ्घार-विपाकानि न पच्चति, अभि. ध. स. 38; - रेन तृ. वि., ए. व. - . .. इध असङ्खारेना ति अवुत्तेपि असङ्घारिकभावो वेदितब्बो, ध. स. अट्ठ. 116; - परिनिब्बायी त्रि., [बौ. सं. अनभिसंस्कारपरिनिर्वायिन]. अनागामी नामक आर्यश्रावक का तृतीय प्रभेद, ऊपर के पांच संयोजनों के प्रहाण के लिए विशेष प्रयास की आवश्यकता न रखने वाला अनागामी आर्यपुद्गल - यी पु., प्र. वि., ए. व. - सो असङ्खारेन अरियमग्गं सजनेति उपरिद्विमानं संयोजनानं पहानाय अयं वुच्चति पुग्गलो असङ्घारपरिनिब्बायी, पु. प. 123; असङ्खारेन अप्पदुक्खन अधिमत्तपयोग अकत्वाव किलेसपरिनिब्बानेन परिनिब्बानधम्मोति असङ्कारपरिनिब्बायी. पु. प. अट्ठ. 48. असंखारिक/असंखारिय त्रि., असङ्घार से व्यु. [असांस्कारिक], अपनी चित्त सन्तति के पूर्वक्षणों की प्रवृत्ति द्वारा स्वतः-प्रवृत्त (चित्त) - कं नपुं., प्र. वि., ए. व. --- .... चित्तस्स तिक्खभावसङ्घातो विसेसोविध सङ्खारो, सो यस्स नत्थि तं असङ्घारं तदेव असङ्घारिक, अभि. ध. स. 79; -- केन त. वि., ए. व. -- असद्धारिकेन पणीतानीति... हीनादितापि चाति, खु. पा. अट्ठ. 26. असंखिय त्रि., [असंख्य], गणना न करने योग्य, माप-जोख न करने योग्य - यं नपुं., प्र. वि., ए. व. -- गणनातो असडियं, अप. 1.73; - यो पु., प्र. वि., ए. व. - गणनातो असलियो, बु. वं. 27.8; - या स्त्री., प्र. वि., ब. व. - परिच्चत्ता असतिया, अप. 2.256; - ये नपुं., द्वि. वि., ब. व. - चत्तुरो च असलिये, बु. वं. 2.1. For Private and Personal Use Only

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