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असत्तु पिक
समापत्ति को प्राप्त व्यक्ति ञ्ञी पु०, प्र. वि., ए. व. - नोपि असञ्ञी न विभूतसञ्ञी, सु. नि. 880; नोपि असञ्ञीति सञ्ञाविरहितोपि न होति निरोधसमापन्नो वा असञ्ञसत्तो वा, सु. नि. अड. 2.245; महानि० अट्ठ 287 - ञ्ञिनो पु०, प्र. वि., ब. व. ये केचि पाण भूतथि सञ्जिनो वा असज्जिनो अप. 1.90 तुल, असञ्ञ' (ऊपर) गम त्रि ब. स., गर्भ में संज्ञा से रहित रहने वाले, पशु एवं वनस्पति जैसे प्राणी जो निश्चेतन होते हुए भी उत्पादक होते हैं। मापु.. प्र. वि. ब. व. सत्त असज्ञीगढमा दी. नि. 1. 48. सत्त असज्ञीगभाति सालिवीहियवगोधूमकडुवरककुसक सन्धाय वदति दी. नि. अन. 1.135 विलो. सज्ञीगमा: द्रष्ट. आगे भव पु. तत्पु. स. [असंज्ञीभाव], संज्ञा से शून्य ब्रह्मा जैसे प्राणियों का लोक या संज्ञाशून्य सत्वों का लोक वो प्र. वि. ए. व. आजीवकानं अनन्तमानसो ति एवं परिकपितो असज्जीभवो म नि अह (भू.प.) 1 (1).322 बाद पु. तत्पु, स. [असंज्ञीवाद], मृत्यु के उपरान्त संज्ञाहीन आत्मा के अस्तित्व को प्रतिपादित करने वाला (आजीवकों का) सिद्धान्त दो प्र. वि. ए. व. - असजीवादो सञ्ञीवादे आदिम्हि युतानं द्विन्नं चतुक्कानं वसेन वेदितब्बो, दी. नि. अट्ठ. 1.102. असज्ञसत्तुपिक [असंज्ञीसत्त्वोपग]. संज्ञाहीन प्राणियों के भव की अवस्था की ओर ले जाने वाला का स्त्री०, प्र.
वि. ए. व. सआवेदयितनिरोधसमापत्ति असज्ञसतुपिकाति
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कथा. 419; काकथा स्त्री, कथा के एक खण्ड का शीर्षक, कथा. 419-420.
असठ त्रि., सठ का निषे, तत्पु० स० [अशठ], निष्ठावान्, सज्जन, ईमानदार, धोखाधड़ी न करने वाला ठो पु०, प्र० वि. ए. व. असठो अमायो, मि. प. 323; असठो होति अमायावी. अ. नि. 2 (1).61: छेन नपुं. तृ. वि. ए. व.. क्रि. विशे, बिना छल के धोखाधड़ी के बिना परसन्तु नोते असठेन युद्ध. जा. अ. 7.173. असण्ठितत्र संठा के भू. क. कृ. का निषे. [असंस्थित] अप्रतिष्ठित, दृढ़तापूर्वक नहीं स्थित ता पु.. प्र. वि. ब. व.- अरूपेसु असण्ठिता, इतिवु. 46; अरूपेसु असण्ठिताति अरुपरागेन अरूपभवेसु अप्पतिदृहन्ता, इतिवु, अट्ठ. 195; 2. संद के भू. क. कृ. का निषे [ अश्रन्थित ], वह, जो ढीला या शिथिल न हो, सुदृढ़, अशिथिल, - तं नपुं. प्र. वि., ए. व.- अच्छातं असण्ठितं....न परितरसेय्य म. नि. 3271 अज्डात असतितन्ति गोवरज्झत्ते निकन्तिवसेन असण्ठितं
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असत्त
म. नि. अ. (उप.प.) 3.200 - तं पु. द्वि. वि. ए. व. सभाव चिन्तयन्तरस, अकम्पितमसण्ठित चरिया 379; असण्डितन्ति सङ्कोचरहितं चरिया, अट्ठ. 77. असतासम्पजञ्ञ नपुं. असति + असम्पञ्ञ का समा० द्व. स. [ अस्मृत्यसम्प्रजन्य ] स्मृति एवं सम्प्रजन्य का अभाव, चित्त की जागरुकता का अभाव द्वि. वि., ए. व. अयोनिसोमनसिकारो परिपूरो असतासम्पजज्ञ परिपूरेति अ. नि. 3(2).94.
असति' अस (खाना) का वर्त. प्र. पु. ए. व. [ अश्नाति ]. 1. खाता है असती ति असको, क. व्या 643; असतीति आसको, सद्द 3.865; - न्ति ब. व. रमन्तातं असन्ति भक्खन्तीति पि रसो, सद्द 2.585; 2. त्रि०, ब० स० [अस्मृतिक], स्मृति या चित्त की जागरुकता से रहित, भुलक्कड़, अज्ञानी
तियो स्त्री. प्र. वि. ब. व. विनस्सथ तुम्हे वसिलियो चोरियो धुत्तियो असतियो... जा. अड. 5.413 3. स्त्री. सति का निषे, तत्पु० स० [अस्मृति], स्मृति का अभाव, चित्त की जागरुकता का अभाव, स्मृति विप्रमोष, प्रत्युत्पन्नमति न रहना ति प्र. वि. ए. व. अननुस्सति अप्पटिस्सति असति... सम्मुसनता ध. स. 1356; असतीयेव पापियाति
लोकस्मिं पन असतियेव पापिया, असतिकरणयेव हीनं • जा. अ. 2.146; - तिया तृ. / प्र. वि., ए. व., क्रि. वि., बिना सोचे-विचारे अपि चाहं अरसतिया पविडोति, महाव. 390; अस्सतिया भगवन्तं न पुच्छिं, चूळव. 457; पाठा. अस्सतिया,
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असति' अस के वर्त. कृ., सन्त के निषे, असन्त का सप्त वि. ए. व. विद्यमान न रहने पर अभाव में न होने की हालत में असति पुरतो निक्खमनमुखे केन निक्खमेच्या ति. मि. प. 272 पुब्बन्तानुविद्वीन असति. - अपरन्तानुविद्वीन असति स. नि. 2 ( 1 ) 42. असत्त त्रि. सज के भू. क. कृ. का निषे. [ असक्त ], शा. अ. नहीं लिपटा हुआ, नहीं जुड़ा हुआ, ला. अ. कामभोगों में मन का लगाव न रखने वाला, सभी तरह की आसक्तियों से मुक्त तो पु. प्र. वि. ए. व. आकासो अलग्गो असत्तो अप्यतिद्वितो अपलिबुद्धो मि. प. 356: तं पु.. द्वि. वि. ए. व. अकिञ्चनं कामभवे असत्तं, सु. नि. 178; 1065; दुविधे कामे तिविधे चे भवे अलग्गनेन कामभवे असतं. सु. नि. अ. 1.184 त्ता पु. प्र. वि. ब. व.
असता विचरन्ति लोके, सु. नि. 494; तत्व असत्ताति रागादिसहवसेन अलग्गा सु. नि. अड. 2.128.
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