Book Title: Pali Hindi Shabdakosh Part 01 Khand 01
Author(s): Ravindra Panth and Others
Publisher: Nav Nalanda Mahavihar
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अवडित 608
अवण्ण नन्दति, दी. नि. अट्ठ. 3.121; - मुख नपुं., तत्पु. स., हानि व. -- दुविधा ... ते हि द्वे हुत्वा उरे जाता वण्टस्स अभावा का कारण - खे सप्त. वि., ए. व. - उय्योगमुखेति अवण्टा , जा. अट्ठ. 5.151; - वटं नपुं. द्वि. वि., ए. व. - परिहानिमुखे, अवुद्धिमुखे च ठितोसीति अत्थो, ध. प. अट्ठ पसन्नचित्तो सुमनो, अवट अददि फलं अप. 1.323; अप. 2.41; 2.195; - कर त्रि., [अवृद्धिकर], हानिकारक, अहितकारक अवण्टक त्रि., उपरिवत् - कानि' नपुं.. प्र. वि., ब. क. -- - रानि नपुं., प्र. वि., ब. व. - असप्पायानीति अवडिकरानि अखीलकानि च अवण्टकानि, हेट्ठा नभ्या कटिसमोहितानि, आरम्मणानि, म. नि. अट्ठ. (उप.प.) 3.36; - काम त्रि., जा. अट्ठ. 5.193; - कानि नपुं.. द्वि. वि., ब. व. - वाक [अवृद्धिकाम], वृद्धि, प्रगति या हित की कामना न करने वा रज्जु वा दिगुणं कत्वा नत्थ अवण्टकानि नीपपुप्फादीनि वाला, भला होने की चाह न रखने वाला - स्स पु., ष. वि., पवेसेत्वा पटिपाटिया बन्धन्ति, पारा. अट्ठ. 2.183-84. ए. व. - अनत्थकामस्साति अवडिकामरस, जा. अट्ठ. 3.93. अवण्टफलदायक पु., एक स्थविर का नाम - इत्थं सुदं अवड्डित त्रि., Vवड्ड के प्रेर., भू, क. कृ. वढित का निषे. आयस्मा अवण्टफलदायको थेरो इमा गाथायो अभासित्थाति, [अवर्धित], नहीं बढ़ाया हुआ, विकसित न किया हुआ - ते अप. 1.323. नपुं.. सप्त. वि., ए. व. - यो पन अवडिते आरम्मणे पवत्तो, अवण्टफलवग्ग पु., अपदान के 39वें वग्ग का शीर्षक, अप. अयं परितारम्मणो, विसुद्धि. 1.87; - कसिण त्रि०, ब. स. 1.323-331. [अवर्धितकृत्स्न], कसिण का विकास न करने वाला - अवण्टफलिय पु., एक स्थविर का नाम- इत्थं सुदं आयस्मा णस्स पु., ष. वि., ए. व. - अवडितकसिणस्स तं कसिणं अवण्टफलियो थेरो इमा गाथायो अभासित्थाति, अप. 2.41अत्ताति च लोकोति च गहेत्वा एवं होति. ..., म. नि. अट्ट 42; 87-88. (उप.प.) 3.14; चक्कवाळपरियन्तं कत्वा वडितकसिणो पन अवण्ण' त्रि., ब. स. [अवर्ण्य], अप्रशंसनीय, प्रशंसा न करने अनन्तसञी होति, दी. नि. अट्ठ. 1.98.
योग्य - पणे सप्त. वि., ए. व./द्वि. वि., ब. व. - चोरा अवड्डिनिस्सित त्रि., तत्पु. स. [अवृद्धिनिःश्रित], दुर्भाग्य से गोघातका लुद्धा, अवण्णे वण्णकारका, जा. अट्ट, 5.262; पीड़ित, अभागा - ता पु., प्र. वि., ब. व. - अपानुभाति तत्थ अवण्णे वण्णकारकाति पेसुञकारका, जा. अट्ट. 5. अवविनिस्सिता मानथद्धा, अ. नि. अट्ठ. 3.29.
269. अवडिभूत त्रि., [अवृद्धिभूत], अवृद्धि या अमङ्गल बना हुआ, अवण्ण' पु., वण्ण का निषे., तत्पु. स. [अवर्ण], अपयश, अहितकर - ता स्त्री., प्र. वि., ए. व. - अवभूतावाति अकीर्ति, अयश, अप्रशंसा, निन्दापरक वचन – एणो प्र. वि., अवविभूता अवमङ्गलभूतायेव, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.318. ए. व. - सक्कियो होति पापस्मि, अवण्णो चस्स रूहति, अवड्डेत्वा विड्ड के पू. का. कृ. वड्ढत्वा का निषे. इतिवु. 50; अस्स वा पुग्गलस्स अवण्णो अभूतोपि [अवर्धयित्वा], नहीं बढ़ाकर, विकास नहीं कराकर - पापजनसेविताय रुहति विरुन्हि वेपल्लं आपज्जति पत्थरति, पटिभागनिमित्तं चक्कवाळपरियन्तं अववेत्वा तं... उद्धमधो इतिवु. अट्ठ. 212; - ण्णं द्वि. वि., ए. व. - समणरस अवजेत्वा पन तिरियं ववेत्वा उद्धमधो अन्तसञ्जी, दी. नि. गोतमस्स अवण्णं उप्पादेत्वा लाभसक्कारं नासेस्सामा ति. अट्ठ. 1.98; तं निमित्तं पत्तववनपूववड्डनभत्तवडनल- ध. प. अट्ठ. 2.102; - ण्णे सप्त. वि., ए. व.- तस्स सत्थुनो तावड्वनदुस्सवड्ढनयोगेन अवड्डत्वा, विसुद्धि. 1.147.
तस्स दिडिया... तस्स आदायस्स अवण्णे भञ्जमाने अत्तमनो अवण त्रि., ब. स. [अव्रण], 1. बिना घाव वाला, व्रण से होति... सङ्घस्स वा अवण्णे भञ्जमाने कुपितो होति, महाव. रहित, व्रण या घाव उत्पन्न न करने वाला - णो पु.. प्र. 90; - काम त्रि., ब. स. [अवर्णकाम], निन्दा करने की वि., ए. व..... को मे असत्थो अवणो, सल्लमब्भन्तरपस्सयं, इच्छा रखने वाला - मा पु., प्र. वि., ब. व. - आयस्मन्तो थेरगा. 757; 2. बेदाग, दागों से रहित - णे पु., सप्त. वि., अवण्णकामा बुद्धस्स अवण्णकामा धम्मरस अवण्णकामा सङ्घरस, ए. व. - पथविं खणित्वा पक्खलन्ता विय अवणे वेरियमणिम्हि अ. नि. 3(1).32; -- भय नपुं.. तत्पु. स. [अवर्णभय], निन्दा वणं उप्पादेन्ता विय, उदा. अट्ठ. 89.
का डर, अपयश के फैलने का डर - या प. वि., ए. व. अवण्ट/अवट त्रि., ब. स. [अवृन्त], क. पत्ते के डण्ठल - अवण्णहारिकाति एवं मे अवण्णभयापि दस्सतीति गेहतो या डण्डी से रहित, बिना डण्ठल वाला (ताड़ वृक्ष या फल). गेहं, विभ. अट्ठ. 457; विसुद्धि. 1.28; - भासक त्रि०, ख. बोड़ी या अग्रभाग रहित (स्तन) - ण्टा पु., प्र. वि., ब. [अवर्णभाषक], निन्दा की बातें बोलने वाला, अपयश के
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