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अविकोपन
अविक्खिपमान अविकिण्णवचनब्यप्पथो अहोसि, दी. नि. 3.132; मनुस्सभूतेन पच्चत्थिकेन पच्चामित्तेन, दी. नि. 3.108; अविकिण्णवचनानं विय पुरिमबोधिसत्तानं वचनपथो अस्साति अक्खम्भियोति अविक्खम्भनीयो, दी. नि. अट्ट. 3.94. अविकिण्णवचनव्यप्पथो, दी. नि. अट्ट. 3.110; - वाच त्रि.. अविक्खित्त त्रि., वि + खिप के भू, क. कृ. का निषे. ब. स. [अविकीर्णवाक]. उपरिवत् - चो पु., प्र. वि., ए. व. [अविक्षिप्त], शा. अ. नहीं बिखराया हुआ, इधर उधर नहीं - यो अकुतूहलो अविकिण्णवाचो मन्तं न भिन्दति, जा. अट्ठ. छितराया हुआ, ला. अ. नहीं बिखरे हुए चित्त वाला, चित्त 1.370; अचपलो अमुखरो अविकिण्णवाचो उपढिस्सति, पु. के बिखराव से रहित - तं नपुं, प्र. वि., ए. व. - समाहित प. 142; - चा ब. व. - ये गुरहमन्ता अविकिण्णवाचा, मे चित्तं अविक्खित्तं, नेत्ति. 73; - त्तेन त. वि., ए. व. -- दळहा सदत्थेसु नरा दुजिव्ह, जा. अट्ठ. 5.77; - सुख नपुं., सुसण्ठितेन इरियापथेन अविक्खित्तेन चित्तेन हद्वेन उदग्गेन कर्म स. [अविकीर्णसुख], स्थिर या अचल सुख - खं विप्पसन्नेन थेरं नागसेनं उपसङ्कमित्वा .... मि. प. 102; - नपुं., प्र. वि., ए. व. - किलेसेहि अनवसित्तसुखं त्तेहि ब. व. - बहि अविक्खित्तेहि अन्तो अनुपविद्वेहेव
अविकिण्णसुखन्तिपि वुत्त, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).114. पञ्चहि इन्द्रियेहि ..., अ. नि. अट्ठ. 3.175; - चित्त त्रि., ब. अविकोपन नपुं., विकोपन का निषे., नाश या हानि का न स. [अविक्षिप्तचित्त], स्थिर चित्त वाला, चञ्चलता से रहित होना, अक्षति, अविनाश, अविखण्डन - नत्थ पु., तत्पु. स., चित्त वाला, चित्त के बिखराव से मुक्त - त्तो पु., प्र. वि., क्षति अथवा हानि नहीं होने का प्रयोजन - त्थं द्वि. वि., ए. ए. व. - सो अविक्खित्तचित्तो समानो भब्बो अयोनिसोमनसिकार व. - भूतगामसिक्खापदरस हि अविकोपनत्थमेत वुत्तं, म. पहातं. अ. नि. 3(2).123; सुपरिसुद्धकायवचीपयोगो हि नि. अट्ठ. 1(1).101.
विप्पटिसाराभावतो अविक्खित्तचित्तो परियत्तियं विसारदो अविकोपिय त्रि., वि+vकुप के सं. कृ. का निषे. [अविकोप्य]. होति, उदा. अट्ट, 14; - ता स्त्री., अविक्खित्त का विनाश न किए जाने योग्य, बाधित या रूपान्तरित न होने भाव. [अविक्षिप्तता], शा. अ. बिखराव का अभाव, ला. अ. योग्य -- यो पु., प्र. वि., ए. व. - मेत्ताविहारी हि पुग्गलो । चित्त में बिखराव या चञ्चलता का न होना - य तृ. वि., सब्बेसं पियो होति परूपक्कमेन अविकोपियो, जा. अट्ठ.. ए. व. - अपमुस्सताय उजु, अविक्खित्तताय अनुद्धट, 4.68.
पतिद्धितताय अचपलं. जा. अट्ठ. 5.196; - भोजित्ता अविकोपी त्रि., विकोपी का निषे. [अविकोपिन], नहीं । स्त्री., भाव., बिखराए या इधर उधर फैलाए बिना हिल-डुल रहा, अबाधित, बाधित या रूपान्तरित नहीं भोजन करना - विसं विसुंभाजनेस ठितानि ब्यञ्जनानि किए जाने योग्य - पिनो पु., प्र. वि., ब. व. - गण्हतो तत्थ तत्थ साभोगताय सिया विक्खित्तभोजिता, सत्तिमे सस्सता काया, अच्छेज्जा अविकोपिनो, जा. अट्ठ. ... वुत्तं अविक्खित्तभोजिता ति, विसुद्धि. महाटी. 1.90; - 7.109, अविकोपिनोति विकोपेतुं न सक्का, जा. अट्ठ. मन त्रि., ब. स. [अविक्षिप्तमनस्], बिखराव या चञ्चलता 7.110.
से रहित मन वाला - मनो पु., प्र. वि., ए. व. - अविक्खम्भित त्रि., वि + खम्भ के भू, क. कृ. का निषे०, अविक्खित्तमनो होमि, सब्बारक्खेहि रक्खितो, अप. 1.341; प्रतिबन्ध, रुकावट या नियंत्रण से रहित, नहीं निरुद्ध, --- सोत त्रि., ब. स. [अविक्षिप्तस्रोतस्], केन्द्रित ध्यान निष्क्रिय या निष्प्रभावी नहीं बनाया हुआ - समथविपस्सनानं से युक्त श्रवणशक्ति वाला, ध्यान लगाकर सुनने वाला - ता अञ्जतरवसेन अविक्खम्भितकिलेसजातं चित्तसन्ततिमनारुळ्हं पु.. प्र. वि., ब. व. - ओहितसोताति वा अविक्खित्तसोता, उप्पत्तिनिवारकस्स हेतुनो, अभावा अविक्खम्भितुप्पन्नं नाम, उदा. अट्ठ. 316. सु. नि. अट्ठ. 1.7; .. तुप्पन्न त्रि., कर्म स., अबाधित अविक्खिपमान त्रि., वि + खिप के वर्त. कृ. का अथवा अनिरुद्ध होने के कारण उत्पन्न - नं नपुं., प्र. वि., निषे., बाधित नहीं होने वाला, चञ्चल न होता हुआ, अस्थिर ए. व. - हेतुनो अभावा अविक्खम्भितुप्पन्नं नाम, सु. नि. या अशान्त नहीं हो रहा - ना पु., प्र. वि., ब. व. - अट्ट, 1.7.
एकारम्मणे चित्तचेतसिका समं सम्मा च अविक्खिपमाना अविक्खम्भिय त्रि., वि + Vखम्भ के सं. कृ. का निषे., अविप्पकिण्णा च हुत्वा तिट्ठन्ति, विसुद्धि. 1.83; बाधित न किए जाने योग्य, अभिभूत नहीं किए जाने योग्य अविक्खिपमानाति न विक्खिपमाना वूपसममाना, विसुद्धि. - यो पु., प्र. वि., ए. व. - अक्खम्भियो होति केनचि महाटी. 1.101.
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