Book Title: Pali Hindi Shabdakosh Part 01 Khand 01
Author(s): Ravindra Panth and Others
Publisher: Nav Nalanda Mahavihar
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अवतिट्टति
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अवस्थापित अवतिट्ठति अव + vठा का वर्त.. प्र. पु., ए. व. [अवतिष्ठति], आवुधानि गहेत्वा अवत्थरणकाले केन नु खो ते कारणेन ठहरता है, टिक जाता है, लम्बे समय तक बना रहता है चित्तुत्रासमत्तम्पि न उप्पन्न न्ति पुच्छन्तो पठम गाथमाह, - सद्धा दुतिया पुरिसस्स होति, नो चे अस्सद्धियं अवतिकृति, जा. अट्ट. 2.278; रो अवत्थरणभावं अत्वा दधिघट स. नि. 1(1).29; यत्थ भयं नावतिद्वति, तेन मग्गेन वजन्ति विरसज्जेसि, जा. अठ्ठ. 2.85; अत्तनो अवत्थरणभावं अत्वा भिक्खवो ति, थेरगा. 21; - स्थासि अद्य., प्र. पु., ए. व. - पटिवचनं न दरसतीति जानाति, दी. नि. अट्ठ. 1.221. दण्डको पतित्वा खन्धे अवत्थासि, जा. अट्ट. 4.185. अवत्थरति/ओत्थरति अव + vथर का वर्त, प्र. पु., ए. अवतिण्ण त्रि., अव + Vतर का भू. क. कृ. [अवतीर्ण], व. [अवस्तृणाति], ढक देता है, ऊपर ढेर लगा देता है, उतरा हुआ, अन्दर तक प्रविष्ट, प्रभावित, डूबा हुआ - ण्णो अत्यधिक भर देता है, ऊपर फैला देता है - अप्पहरिते कतो पु.. प्र. वि., ए. व. - उप्पथं अवतिण्णो भवं, न हि भवं हरितं ओत्थरति, आपदासु उम्मत्तकस्स आदिकम्मिकस्साति, अम्हाकं वचनत्थं जानाति, सद्द. 1.136.
पाचि. 281; तेसहि सरीरतो तेजो मम सरीरं ओत्थरति, मम अवत्तब्बता स्त्री., Vवद के सं. कृ., वत्तब्ब के भाव. का निषे. सरीरतो तेजो तेसं सरीरं न ओत्थरति, ध. प. अट्ठ. 1.239; [अवक्तव्यता], वचनों द्वारा कहने योग्य न होना, वचनों --न्ति ब. व. - तस्स हदये अपस्मारवाता अवत्थरन्तीति का अविषय होना - य तृ. वि., ए. व. - तम्हि ... अत्थो , जा. अट्ठ. 4.75; - न्तो पु०. वर्त. कृ.. प्र. वि., ए. अवत्तब्बताय अनक्खातं नाम, ध. प. अट्ठ. 2.169.
व. - सामणेरहि तस्मिं काले सिनेरुना अवत्थरन्तोपि मारेतुं अवत्थ' त्रि., ब. स. [अवस्त्र], वस्त्ररहित, नग्न - त्थो पु.. समत्थो नाम अस्थि ध. प. अट्ठ 1.384; - न्ता ब. व. - प्र. वि., ए. व. - नग्गो दिगम्बरो'वत्थो, घरमरो तु च ते नगरं अवत्थरन्ता विय तस्स गेहं गन्त्वा ..., जा. अट्ठ. 4. भक्खको, अभि. प. 734.
169; -- मानो उपरिवत् ए. व. - सोपि खो अग्गि एकधूमो अवत्थ त्रि., अस के भू. क. कृ. से व्यु. [अपास्त], दूर हत्वा एकजालो अवत्थरमानो आगच्छतेव, जा. अट्ट. 1.209; फेंक दिया गया, छोड़ा हुआ - त्थं स्त्री.. द्वि. वि., ए. व. - मानं उपरिवत्, वि. वि., ए. व. - तयोपि जने अवत्थरमानं - छिन्नं वने खत्तियेहि अवत्थं सिङ्गालसङ्घा परिकद्धिस्सन्ति, गेहं पति, ध, प. अट्ठ. 1.392; - रित्वा पू. का. कृ. -- ता
जा. अट्ठ. 5.292; अवत्थन्ति छडितं, जा. अट्ठ. 5.293. इथियो तूरियभण्डानि अवत्थरित्वा निद्दायन्तियो ..., जा. अवत्थत/ओत्थत/अवत्थट त्रि., अव + vथर का भू. अट्ठ. 1.71; बोधिसत्तो कुलावके निपन्नकोव गीवं उक्खिपित्वा
क. कृ. [अवस्तृत], आच्छादित, खचित, अत्यधिक भरा अवत्थरित्वा आगच्छन्तं अग्गिं दिस्वा चिन्तेसि, जा. अट्ट. हुआ - तो पु., प्र. वि., ए. व. - सुखुमालताय भत्तकाजेन 1.210. अवत्थतो पतति, जा. अट्ठ, 5.284; वलिग्गाही देवपुत्तो ओ अवस्था स्त्री., [अवस्था], दशा, स्थिति, स्थायीपन, जीवन तेजेन ओत्थतो, म. वं. 21.30; सो असनिया मत्थके अवत्थटो की अवधि - तो प्र. वि., ए. व. - तासं येव च नामानि विय मा म, आवुसो, नासेहि, नत्थि मय्ह एवरूपन्ति, ध. प. अवत्थातो इमानि पि, सद्द. 2.363; - सु सप्त. वि., ब. व. अट्ट, 2.31; - तं द्वि. वि., ए. व. - तं भत्तकाजेन ओत्थतं - अथ वा सम्मा गतत्ताति तीसुपि अवस्थासु सम्मापटिपत्तिया दिस्वा चिन्तेसि, जा. अट्ट, 5.284.
गतत्ता, सुप्पटिपन्नत्ताति अत्थो, उदा. अट्ठ. 70; तस्मा अवत्थद्ध त्रि., अव + Vथम्भ का भू. क. कृ. [अवस्तब्ध]. तीसुपि अवत्थासु सब्बसन्तेसु समानरसाय तथाय महाकरुणाय निर्भर, आश्रय लेने वाला - त्थद्धो पु., प्र. वि., ए. व. --- सकललोकहिताय गतो पटिपन्नोति तथागतो, उदा. अट्ठ. सके सिप्पे अवत्थद्धो, अगमं काननं अहं, अप. 1.232; पाठा. 106; - त्थादिविभाग पु., तत्पु. स. [अवस्थादिविभाग], अपत्थट्ठो.
अवस्था या स्थिति आदि की दृष्टि से प्रभेद या विभाजन - अवत्थन्तरभेद पु., तत्पु. स. [अवस्थान्तरभेद], विभिन्न गेन तृ. वि., ए. व. - कामतण्हादिवसेन अट्ठसतभेदा मनोदशाओं का विभाजन - तो प्र. वि., ए. व. - समथोति अवत्थादिविभागेन अनन्तभेदा च. उदा. अट्ठ. 174. च निष्ठिा अवत्थन्तरभेदतो, सद्धम्मो. 457.
अवस्थापित त्रि., अव + Vठा के प्रेर. का भू. क. कृ. अवत्थरण/ओत्थरण नपुं., अव + Vथर से व्यु., क्रि. ना. [अवस्थापित], व्यवस्थित या सुनिश्चित किया हुआ, [अवस्तरण], क. आच्छादन, ढक लेना, ख. अचानक सुनिर्धारित - ताय स्त्री., त. वि., ए. व.- देसनाति तस्सा हमला कर अभिभूत कर लेना- सम्म, तथादारुणानं चोरानं मनसाववत्थापिताय पाळिया देसना, पारा. अट्ठ. 1.18.
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