Book Title: Pali Hindi Shabdakosh Part 01 Khand 01
Author(s): Ravindra Panth and Others
Publisher: Nav Nalanda Mahavihar
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अवकस्सित्वा
601
अवक्कन्त
अवकस्सित्वा अव + ।कस का पू. का. कृ., नीचे की ओर पटिकिराम, अवकुज्जा पतामसे, पे. व. 789; अवकुज्जा घसीट कर, खींच कर -- तत्थ ओक्कस्साति अवकस्सित्वा पतामसेति कदाचि अवकुज्जा हुत्वा पताम, पे. व. अट्ट. आकड्डित्वा, दी. नि. अट्ठ. 2.98; ओकस्साति वा पसरहाति 236; - कं अ., द्वि. वि., प्रतिरू. निपा.. अस्त, व्यय या वा पसरहाकारस्सेवेतं नाम, ओकासातिपि पठन्ति, तत्थ तिरोधान के रूप में- तेन विचिनि सङ्घारे अक्कुज्जमवकुज्जक
ओकस्साति अवकसित्वा आकवित्वा, अ. नि. अट्ठ. 3.155. बु. वं. 11.4; उक्कुज्जमवकुज्जकन्ति सङ्कारानं उदयञ्च अवकिरण नपुं., अव + ।किर से व्यु., क्रि. ना. [अवकिरण].. वयञ्च विचिनीति अत्थो, बु. वं. अठ्ठ. 211; - निपन्न त्रि०, दूर फेंक देना, छितरा देना, परित्याग, विनाश, नानाकरण कर्म. स., नीचे को मुख करके लेटा हुआ या पड़ा हुआ - - णे सप्त. वि., ए. व. - चसद्दग्गहणमवधारणत्थं - न्नो पु., प्र. वि., ए. व. - यो उत्तानं निपन्नो ... यो अवसाने, अवकिरणे, अवकिरति, क. व्या. 79.
अवकुज्ज निपन्नो ... यो चन्दं पस्सति, महानि. 280; अवकिरति/ओकिरति अव +किर का वर्त., प्र. पु., ए. अवकुज्ज निपन्नोति अधोमुखो हुत्वा निपन्नो पस्सति, महानि. व., शा. अ. इधर-उधर बिखरा देता है या छितरा देता है, अट्ठ. 335; - पञ त्रि., ब. स., मन्द प्रज्ञा वाला, लड़खड़ाती दूर फेंक देता है, ला. अ. उपेक्षा करता है - हुई बुद्धि वाला - ओ पु., प्र. वि., ए. व. - कतमो च चसद्दग्गहणमवधारणत्थं- अवसाने, अवकिरणे, अवकिरति, पुग्गलो अवकुज्जपओ, पु प. 138; दसमे अवकुज्जपोति क. व्या. 79; - वाकिरि अद्य., प्र. पु., ए. व., दूर फेंक अधोमुखपओ, अ. नि. अट्ठ. 2.98. दिया - सस्सु च पच्छा अनुयुञ्जते मम, कहं नु उच्छु अवकुज्जेति अवकुज्ज का ना. धा., वर्त, प्र. पु., ए. व., वधुके अवाकिरि वि. व. 300; अवाकिरीति अपनेसि छड्डेसि, पलट देता है, उलट पुलट कर देता है, गड़बड़ कर देता विनासेसि वा. वि. व. अट्ठ. 104; - किरिय पू. का. कृ., है- अजिस्सा पातिया पटिकुज्जति अवकुण्जेति, अवकुज्जो इधर उधर बिखेर कर - किसहि वच्छं अवकिरिय दण्डकी, निपज्ज अहं, सद्द. 2.349; - ज्जन्तो त्रि., वर्त. कृ., उच्छिन्नमूलो सजनो सरहो, ... अवकिरियाति उलटता हुआ - भत्तभरितं पाति अवकुज्जन्तो विय थेरस्स अवकिरित्वानिवभनदन्तकट्ठपातनेन तस्स सरीरे कलिं पसादभङ्गं करोन्तो एवमाह, अ. नि. अट्ठ. 2.205. पवाहेत्वा, जा. अट्ठ. 5.137; 138; - किरित्वा पू. का. कृ., अवकुट्ठ त्रि., अव + कुस का भू. क. कृ. [अवक्रुष्ट]. कल बिखरा कर - सित्थावकारकन्ति सित्थानि अवकिरित्वा कल से गूंज रहा, आवाजों से भरा हुआ, कूजित, निनादित अवकिरित्वा, पाचि. अट्ठ. 155; - किरीयति कर्म. वा., -8 नपुं., प्र. वि., ए. व. - अवादयो कुट्ठाद्यत्थे ततिताय: वर्त., प्र. पु., ए. व., छोड़ दिया जाता है, त्याग दिया जाता अवकुटुं कोकिलाय वनमवकोकिलं, अवमयूरं मो. व्या. 3.13. है - पहूतं अन्नपानम्पि, अपिस्सु अवकिरीयति, पे. व. 396; अवकूल त्रि., निचली या गहरी खाइयों वाले तट वाला/वाली अपिस्सु अवकिरीयतीति सूति निपातमत्तं, अपि अवकिरीयति - ला स्त्री, प्र. वि., ए. व. - अनावकुलाति न अवकुला छट्टीयति, पे. व. अट्ठ. 152.
अखानुमा उपरि उक्कुलविकुलभावरहिता वा समसण्ठिता, अवकुज्ज त्रि., [बौ. सं. अवकुब्जक], अधोमुख होकर पड़ा जा. अट्ठ. 5.162. हुआ, नीचे की ओर मुख करके लेटा हुआ, नीचे की ओर अवकोकिल त्रि.. [अवकोलिल], 1. अत्यधिक कोयलों वाला, झुका हुआ (कुबड़ा) - ज्जो पु.. प्र. वि., ए. व. - कुज्जति 2. कोयलों की कूक से गूंजता हुआ - लं नपुं. प्र. वि., ए. निकुज्जति उक्कुज्जति पटिकुज्जति, निकुग्जितं वाव. - अवकुटुं कोकिलाय वनमवकोकिल, मो. व्या. 3.13; उक्कुण्जेय्य, अजिस्सा पातिया पटिकुज्जति, अवकुज्जेति वियोगे ओमुक्कौपाहनो, अवकोकिलं वनं, सद्द. 3.882. अवकुज्जो निपज्ज अहं सद्द. 2.349; सो खो अहं, सारिपुत्त, अवक्कन्त त्रि., अव + ।कमु का भू. क. कृ. [अवक्रान्त]. वच्चं वा मुत्तं वा करिस्सामी ति तत्थेव अवकुज्जो पपतामि भीतर तक भरा हुआ, पूरी तरह से डूबा हुआ, अत्यधिक तायेवप्पाहारताय, म. नि. 1.114; अवकुज्जो पपतामी ति पीड़ित - न्ता पु.. प्र. वि., ब. व. - भिक्खवे, एकन्तदुक्खा तस्स हि उच्चारपस्सावत्थाय निसिन्नरस पस्सावो नेव अभविस्स दुक्खानुपतिता दुक्खावक्कन्ता अनवक्कन्ता सुखेन, निक्खमति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).363; - ज्जा' स्त्री., नयिदं सत्ता पथवीधातुया सारज्जेय्यु, स. नि. 1(2).157; प्र. वि., ए. व. - घरतो निक्खमित्वान, अवकुज्जा निपज्जहं, दुक्खावक्कन्ताति दुक्खेन ओक्कन्ता ओतिण्णा. स. नि. थेरीगा. अट्ठ.9; - ज्जा' पु., प्र. वि., ब. व. - उत्ताना अट्ठ. 2.138.
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