Book Title: Pali Hindi Shabdakosh Part 01 Khand 01
Author(s): Ravindra Panth and Others
Publisher: Nav Nalanda Mahavihar

View full book text
Previous | Next

Page 600
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अरियवत 573 अरियसङ्घ जा. अट्ठ. 3.266; तत्थ अरियवण्णीति सुन्दररूपो, तदे. अरियवत त्रि., ब. स. [आर्यव्रत], आर्यजनों अथवा बुद्धों एवं अर्हतों द्वारा गृहीत शील आदि व्रतों का पालन करने वाला -- ता पु.. प्र. वि., ब. व. - अनुसासि में अरियवता, अनुकम्पि अनुग्गहि, थेरगा. 334; अरियवताति सुविसुद्धसीलादिवतसमादानेन, थेरगा. अट्ठ. 2.43. अरियवत्ति' स्त्री., कर्म, स. [आर्यवृत्ति], उत्तम आचरण, उत्तम शील - त्ती प्र. वि., ब. व. - ठितमरियवत्ती सवचो अकोधनो, जा. अट्ठ. 3.392; ठितमरियवत्तीति ठितअरियवत्ति, अरियवत्ति नाम दसराजधम्मसङ्कातं पोराणराजवत्तं, तदे... अरियवत्ति त्रि., ब. स. [आर्यवृत्ति]. उत्तम शीलों वाला, उत्तम आचरण वाला, आर्य के उत्तम आचरणों एवं गुणों से युक्त - त्ती पु.. प्र. वि., ए. व. - अरियवत्तसि वक्कङ्ग, यो पिण्डमपचायसि, जा. अट्ठ. 5.358; तत्थ अरियवत्तसीति मित्तधम्मरक्खणसङ्घातेन आचारअरियानं वत्तेन समन्नागतोसि, तदे.. अरियवास पु.. तत्पु. स. [आर्यवास], बुद्धों एवं अर्हतों द्वारा पालन किए गए ब्रह्मचर्य-जीवन में निवास, शील समाधि एवं प्रज्ञा की शिक्षाओं का अनुपालन - सा प्र. वि., ब. व. - दस अरियवासा, इधावुसो, भिक्खु पञ्चङ्गविप्पहीनो होति. दी. नि. 3.214; 249; अरियवासाति अरिया एवं वसिंसु वसन्ति वसिरसन्ति एतेसूति अरियवासा, दी. नि. अट्ट. 3.214; - भाणक त्रि., ब्रह्मचर्य-जीवन में वास से सम्बन्धित सुत्तों का पाठ करने वाला - को पु., प्र. वि., ए. व. - सो वत्तब्बो त्वं अरियवासभाणको होसि न होसी ति, विभ. अ. 433. अरियविनय पु., कर्म. स. [आर्यविनय], विनय के उत्तम नियम, आर्यों अथवा बुद्ध द्वारा प्रज्ञप्त विनय - ये सप्त. वि., ए. व. - तथेव अरियविनये, सद्धा यस्स न विज्जति, अ. नि. 2(2).67; सद्धम्मे सुप्पवेदिते सम्मासम्बुद्धेन सुट्ट पवेदिते अरियविनये अहं पब्बजिता, थेरीगा. अट्ठ. 266. अरियविहार पु.. तत्पु./कर्म. स. [आर्यविहार], उत्तम विहार, आर्यजनों अथवा बुद्धों, प्रत्येकबुद्धों एवं अर्हतों की जीवनवृत्ति, मन की उत्तम अवस्था - रो प्र. वि., ए. व. - सम्मा वदमानो वदेय्य- अरियविहारो इतिपि, ब्रह्मविहारो इतिपि, तथागतविहारो इतिपि, स. नि. 3(2).395-396; - रेन त. वि., ए. व. - तदा अरियविहारेन विहरति तेसं अमोहकुसलमूलुप्पादनत्थं, सु. नि. अट्ठ. 1.108; - स्स ष. वि., ए. व. - अदोसो ब्रह्मविहारस्स, अमोहो अरियविहारस्स. ध. स. अट्ठ. 174; - पुब्बङ्गम त्रि.. ब. स. [आर्यविहारपूर्वङ्गम], वह, जिसके पूर्वाधार के रूप में उत्तम विहार या आर्यजनों द्वारा अनुपालित ब्रह्मचर्यवास रहता हो - माय स्त्री., तृ. वि., ए. व. - तं समयं अरियविहारपुब्बङ्गमाय धम्मपच्चवेक्खणाय भगवा विहासि, उदा. अट्ठ. 19; - समङ्गिता स्त्री., भाव, आर्यविहारों से भरपूर होना - ता प्र. वि., ए. व. - इरियापथेसु आसनसङ्खातं इरियापथसमायोगपरिदीपनं अरियविहारसमङ्गिता-परिदीपनञ्चाति वेदितब्बं उदा. अट्ठ. 22. अरियवीथि स्त्री., कर्म. स. [आर्यवीथि], आर्यजनों का मार्ग, उत्तम लोकोत्तर मार्ग, बुद्धों, प्रत्येकबुद्धों एवं अर्हतों का चित्तविशुद्धि प्राप्त कराने वाला मार्ग - तो प. वि., ए. व. - असेसअरियवीथितोपि तथागता पटिसल्लानं सेवन्ति, मि. प. 142. अरियत्ति त्रि., ब. स. [आर्यवृत्ति], उत्तम जीवन जीने वाला, उत्तम आचरण या व्यवहार वाला - तिं पु.. द्वि. वि., ए. व. - अरियवृत्तिं मेधाविं, हीनजच्चम्पि पूजये, स. नि. 1(1),118; - त्तिने पु., सप्त. वि., ए. व. - कतम्हि च पोसम्हि, सीलवन्ते अरियत्तिने, जा. अट्ट. 4.38; - तिनं पु., ष. वि., ब. व. - इच्चेवं मन्तयन्तानं अरियानं अरियवुत्तिनं. जा. अट्ठ. 5.334; 356. अरियवोहार पु., क. कर्म. स. [आर्यव्यवहार], उत्तम वाणी का प्रयोग, शिष्ट वाग्व्यवहार, सभ्य भाषा का प्रयोग, असत्यभाषण, चुगली, कठोरवाणी एवं निरर्थक बातचीत से मुक्त वाग्व्यवहार - रेन तृ. वि., ए. व. - भगिनियोति अरियवोहारेन आलपनं, जा. अट्ठ. 5.418; - रा प्र. वि., ब. व. - चत्तारो अरियवोहारा ति एत्थ चेतना, उदा. अट्ठ. 271; चत्तारोमे, भिक्खवे, अरियवोहारा ... अदितु अदिवादिता असुते असुतवादिता अमुते अमुतवादिता अविआते अविज्ञातवादिता, अ. नि. 1(2).281; परि. 248; ख. जनसाधारण के लिए प्रयुक्त आर्यजनों की भाषा का प्रयोग -- अयमेवेका यथाभुच्चब्रह्मवोहारअरियवोहारसङ्घाता मागधभासा न परिवत्तति, विभ. अट्ठ. 367. अरियसङ्घ पु., तत्पु./कर्म. स. [आर्यसङ्घ], आर्यों अथवा उत्तम शील आदि से सम्पन्न भिक्षुओं का सङ्घ, उत्तम सङ्घ - ई वि. वि., ए. व. - खेत्तं जनानं कुसलथिकानं, तमरियसङ्घ सिरसा नमामि, पारा. अट्ठ. 1.2; वन्दे अरियसङ्घ तं. पुञक्खेत्तं अनुत्तरं उदा. अट्ठ. 1; - स्स ष. वि., ए. व. - सत्तमो पुग्गलो एसो, अरियसङ्घस्स वुच्चति, अ. नि. For Private and Personal Use Only

Loading...

Page Navigation
1 ... 598 599 600 601 602 603 604 605 606 607 608 609 610 611 612 613 614 615 616 617 618 619 620 621 622 623 624 625 626 627 628 629 630 631 632 633 634 635 636 637 638 639 640 641 642 643 644 645 646 647 648 649 650 651 652 653 654 655 656 657 658 659 660 661 662 663 664 665 666 667 668 669 670 671 672 673 674 675 676 677 678 679 680 681 682 683 684 685 686 687 688 689 690 691 692 693 694 695 696 697 698 699 700 701 702 703 704 705 706 707 708 709 710 711 712 713 714 715 716 717 718 719 720 721 722 723 724 725 726 727 728 729 730 731 732 733 734 735 736 737 738 739 740 741 742 743 744 745 746 747 748 749 750 751 752 753 754 755 756 757 758 759 760 761