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अभिविनय
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अभिब्यापेति
निपातेन च योगे तं कारक ... होति, सद्द. 3.703; विलो. मरियादा. अभिविनय पु., क. विशिष्ट प्रकार का अथवा उच्च स्तर का विनय, भिक्षुओं का अत्यन्त उदात्त आत्मनियन्त्रण - यो प्र. वि., ए. व. - किलेसवूपसमं कारणं अभिविनयो, दी. नि. अट्ठ. 3.210; ख. वि. पि. के खन्धक एवं परिवार नामक संग्रह - अभिविनयोति खन्धकपरिवारा, दी. नि. अट्ट, 3.210; ग. अभिविनये रूप में प्राप्त होने पर, विनय के विषय में, केवल विशुद्ध विनय के सम्बन्ध में - अभिधम्मे अभिविनये उळारपामोज्जो, दी. नि. 3.213; पटिबलो विनेतुं अभिधम्मे अभिविनये ति आदीसु परिच्छिन्ने, अञमञ्जसङ्करविरहिते धम्मे च विनये चाति कुत्तं होति.ध. स. अट्ट, 21; पारा. अट्ठ 1.16. अभिविन्दति पु., अभि + विद का वर्त, प्र. पु., ए. व., पाता है, प्राप्त करता है, उपलब्ध करता है - विन्दे विधि., म. पु., ए. व. - अप्पेविध अभिविन्दे सुमेधं सु. नि. 464; अभिविन्दे लच्छसि अधिगच्छिस्ससि सु. नि. अट्ठ. 2.120. अभिविसिट्ठ त्रि., [अभिविशिष्ट], अतिविशिष्ट, सर्वोत्तम, परमश्रेष्ठ - द्वेन तृ. वि., ए. व. - सयमेव अभिविसिडेन जाणेन पच्चक्खं कत्वा, दी. नि. अट्ठ. 1.87; - हाय स्त्री., तृ. वि., ए. व. - ये इमञ्च लोकं परञ्च लोकं अभिविसिवाय पञाय सयं पच्चक्खं कत्वा .... म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).228. अभिविसज्जि/अभिविस्सजि/अभिविसज्जेसि अभि + वि + सज के प्रेर. का अद्य, प्र. पु., ए. व., पूर्णरूप से त्याग दिया, पूर्ण रूप से हटवा दिया - पुरिमतरभवे ठितो अभिविस्सजि, दी. नि. 3.119; अभिविस्सजीति अभिविस्सज्जेसि. दी. नि. अट्ठ. 3.105. अभिविस्सत्थ त्रि., अभि + वि + ।सस का भू. क. कृ. [अभिविश्वस्त], अत्यधिक विश्वस्त, आत्मविश्वासपूर्ण, निश्चयी, अतीव विश्वस्त - त्थो पु.. प्र. वि., ए. व. - यस्स मे कस्सपो भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो एवं अभिविस्सत्थो ति, म. नि. 2.253; अभिविस्सत्थोति अतिविस्सत्थो, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.203. अभिविहच्च अभि + वि+ हन का पू. का. कृ. [अभिविहत्य], चारों ओर विखेर कर, तितर वितर कर, छिन्न-भिन्न कर, विनष्ट कर, हटा कर, दूर कर - आदिच्चो नभं अभुस्सकमानो सब् आकासगतं तमगतं अभिविहच्च भासते च तपते च विरोचते, म. नि. 1.398; अभिविहच्चाति अभिहन्त्वा, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).272.
अभिविहत अभि + वि + vहन का भू. क. कृ. [अभिविहत]. बुरी तरह से मारा हुआ, अभिभूत, पराजित, आहत, परास्त - तानं पु., ष. पु., ब. व. - भोगपारिजुजेन वा ब्याधिपारिजुञ्जेन वा अभिहतानं .... खु. पा. अट्ठ. 113; पाठा. अभिहतानं. अभिवुड्ड अभि + Vवड्ढ का भू. क. कृ. [अभिवृद्ध]. पूर्णरूप से पाला पोसा हुआ, सुख में स्थित, बढ़ाया हुआ - ड्डा पु., प्र. वि., ब. व., - सुखेधिता ति पाठो, सुखेन अभिवुड्डा फीताति अत्थो, पे. व. अट्ठ. 131. अभिवुद्धि स्त्री., [अभिवृद्धि]. अत्यधिक वृद्धि, अभ्युदय, सफलता, विकास, सम्पन्नता - द्धिं द्वि. वि., ए. व. - अभिवुद्धि अथो... सयं, चू, वं. 81.64; - या च. वि., ए. व. - कतं वि जनस्साससासनस्सभिवुद्धिया, सद्द, 1.265; - कामा स्त्री., ब. स., प्र. वि., ए. व., किसी के विकास या संवर्धन की कामना करने वाली - दहरस्स अभिवृद्धिकामा होति, ध. स. अट्ठ. 240. अमिवेदेति क. अभि + विद का वर्त, प्र. पु.. ए. व. [अभिवेत्ति], किसी के बारे में ज्ञान रखता है, ध्यान रखता है या जानता है - न्ति प्र. पु., ब. व. - तं मं मतं वा जीवं वा, नाभिवेदेन्ति जातका, जा. अट्ट, 7.18; नाभिवेदेन्तीति न जानन्ति, कथेन्तोपि नेसं नत्थि, तदे. ख. प्रेर.. [अभिवेदयति]. के बारे में सूचित करता है, दिखाता है, प्रकट करता है - यित्थ अद्य.. प्र. पु., ए. व., आत्मने. - अभिवेदयित्थ मग्गं. दा. वं. 5.2. अभिव्यञ्जक त्रि., [अभिव्यञ्जक], प्रकट करने वाला, प्रकाशन करने वाला, सुस्पष्ट कर देने वाला - को पु.. प्र. वि., ए. व.- अनेकरसव्यञ्जनोति अनेकेहि सूपेहि... सम्मिन्नरसानञ्च
अभिव्यञ्जको, उदा. अट्ठ. 160. अभिव्यञ्जति अभि + वि + अञ्ज का वर्त, प्र. पु.. ए. व., प्रेर. [अभिव्यञ्जयति], प्रकट या सुव्यक्त करता है, सुस्पष्ट कर देता है - अञ्जति तत्थ ठितं अतिसुन्दरताय अभिव्यञ्जतीति हि अङ्गणं, सद्द. 2.333; - व्यत्त भू. क. कृ. [अभिव्यक्त], प्रकट किया हुआ, प्रकाशित, उद्घोषित - ताय स्त्री., भाव., तृ. वि., ए. व. - इमेहि पन पदेहि कालातिक्कमेयेव अभिब्यत्तताय ... पकतिया दीपिता, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).224. अभिब्यापेति अभि + वि + आप का वर्त, प्र. पु., ए. व., प्रेर. [अभिव्यापयति, चारों ओर भर देता है, फैलाता है, विस्तृत कराता है - त समन्ता विधूपेति अभिब्यापेति, मि. प.
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