________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अरट्ठ 558
अरणीय अरट्ठ नपुं., रट्ट का निषे. [अराष्ट्र], राष्ट्र की स्थिति से वि., ए. व. - अरणिं मन्थेत्वा अग्गिं निब्बत्तेत्वा धूमं करिंसु. भिन्न, राष्ट्र से इतर -- टुं द्वि. वि., ए. व. - रष्टुं अरद्वमकसु. जा. 4.259; - णी वि. वि., ब. व. - अरणी फलपीठे च जा. अट्ठ. 5.349.
पत्तपिधानथालके, अप. 1.333; - नं ष. वि., ब. व. - द्विन्नं अरण त्रि०, ब. स. [अरण, भिन्नार्थक], क्लेशों से मुक्त, कट्ठानन्ति द्विन्न अरणीनं, स. नि. अट्ठ. 3.270; - क नपुं.. विशुद्ध - णो पु., प्र. वि., ए. व. - तस्मा एसो धम्मो अरणो, [अरणिक], लकड़ियों के घर्षण द्वारा आग उत्पन्न करने में म. नि. 3.286; - णा ब. व. - अरणा धम्मा, ध. स. 100%; उपयोगी उपकरण, अरणिधनुक- के सप्त. वि., ए. व. - तेनाकारेन नत्थि एतेसं रणाति अरणा, ध. स. अट्ठ. 973; अनापत्ति गण्ठिकाय, अरणिके, विधे... आदिकम्मिकस्साति, केसूध अरणा लोके, स. नि. 1(1).52; - णं द्वि. वि., ए. व. पाचि. 221; अरणिकति अरणिधनुके, पाचि. अट्ठ. 142; - - सन्तं समाधि अरणं निसेवतो, नेत्ति. 150.
धनुक नपुं., आग जलाने के लिए घूमती हुई अरणि अरणजह पु., 16 चक्रवर्ती राजाओं की उपाधि के रूप में लकड़ियों को सक्रिय रखने में प्रयुक्त धनुष - के सप्त. वि., प्रयुक्त - हा प्र. वि., ब. व. - सत्ततिसम्हितो कप्पे, सोळस ए. व. - अरणिकति अरणिधनुके, पाचि. अट्ठ. 142; - अरणजहा, अप. 1.206.
पोतक पु., दोनों अरणिकाष्ठों का एक छोटा भाग - को अरणविभङ्ग पु., तत्पु. स. 'अरण' का व्याख्यानात्मक विवेचन प्र. वि., ए. व. - अरणिपोतको न सिया, मि. प. 54; - ङ्गं द्वि. वि., ए. व. - अरणविभङ्गं वो... देसेस्सामि, म. अरणिपोतको सिया, तदे.;-मथनयोग पु.. [अरणिमथनयोग], नि. 3.279; - स्स ष. वि., ए. व. - अयमुद्देसो अरणविभङ्गरस, अरणि नामक लकड़ियों के घर्षण के काम में लगाव - गेन म. नि. 3.279; - सुत्त नपुं., म. नि. का एक सुत्त, जिसमें तृ. वि., ए. व. - योगयुत्तोति अरणिमथनयोगेन युत्तो हुत्वा, क्लेशों से विमुक्ति के उपाय का उपदेश प्राप्त होता है, म. जा. अट्ठ. 7.54; - णीयुगळ नपुं.. [अरणियुगल], ऊपर नि. 3.279-286.
तथा नीचे की दोनों अरणि नामक लकड़ियां - लं प्र. वि., अरणविहार पु., साधक के चित्त की वह शुद्ध अवस्था, ए. व. - अरणीसहितन्ति अरणीयुगळं दी. नि. अट्ठ. 2.361; जिसमें रहते हुए ध्यानों द्वारा मन के नीवरण, वितर्क, विचार अरणी युगळन्ति उत्तरारणी, अधरारणीति अरणीद्वयं, लीन. आदि को तथा धर्मों में अनित्य, दुःख और अनात्म की (दी.नि.टी.) 2.327; - योत्तक नपुं.. [अरणियोक्तृ], दोनों अनुपश्यना द्वारा नित्य, सुख एवं आत्मा की संज्ञाएं हर ली अरणि लकड़ियों को एक साथ बांध कर रखने वाली लकड़ी जाती हैं - रो प्र. वि., ए. व. - पठमेन झानेन नीवरणे - कं प्र. वि., ए. व. - अरणियोत्तकं न सिया, मि. प. 54; हरती ति अरणविहारो, पटि. म. 89; - रे सप्त. वि., ए. व. अरणियोत्तकं सिया, तदे; - णीसहित नपुं., आग उत्पन्न - कथं दस्सनधिपतेय्यं सन्तो च विहाराधिगमो करने वाली अरणि-नामक दो लकड़ियां - तं प्र./द्वि. वि., पणीताधिमुत्तता पजा अरणविहारे आणं, पटि. म. 89; -- ए. व. - अयं वासी इमानि कट्ठानि इदं अरणिसहितं. दी. आणनिद्देस पु, पटि. म. का एक परिच्छेद, जिसमें अरणविहार नि. 2.252; अरणीसहितन्ति अरणीयगळं दी. नि. अट्ठ. में साक्षात्करणीय ज्ञान पर प्रकाश डाला गया है, पटि. म. 2.361; - अरणिसहितं नीहरित्वा अग्गिं करोन्ति, जा. अट्ठ. 89-90.
1.209; - तानि ब. व. -- थविकतो अरणिसहितानि नीहरित्वा, अरणविहारी त्रि., क्लेशमुक्त या विशुद्ध चित्त के साथ म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).404; - तेन तृ. वि., ए. व. - विहार कर रहा साधक, अर्हत् - री पु., प्र. वि., ए. व. -- अरणिसहितेन अग्गिं निब्बत्तेत्वा ... अग्गिक्खन्धं कत्वा, ध. पुअरस खेत्तं अरणविहारी, पे. व. 549; - नं ष. वि., ब. प. अट्ट, 1.382; - हत्थ त्रि., ब. स. [अरणिहस्त]. अपने व. - एतदग्गं अरणविहारीनं यदिदं सुभूति, अ. नि. हाथों में अरणि नामक लकड़ियों के टुकड़ों को लिया हुआ 1(1).32.
-त्थेन पुत. वि., ए. व. - नामत्थमानोति नापि अरणिहत्थेन अरणि/अरणी पु./स्त्री., [अरणि, अरणी], आग उत्पन्न नरेन अमत्थियमानो निब्बत्तति, जा. अट्ट, 7.54; - णीनर करने वाली लकड़ी, शमी की लकड़ी के टुकड़े, जिनके पु., अरणियों को लिया हुआ भनुष्य - रेन तृ. वि., ए. व० घर्षण से आग जलाई जाती थी- यूपो थूणाय निम्मन्थ्यदारुम्हि - नामत्थमानो अरणीनरेन, जा. अट्ठ. 7.52. त्वरणी द्विसु, अभि. प. 419; तुल. अमर. 11.7; -णि पु.... अरणीय त्रि., अर का सं. कृ., प्राप्त करने योग्य, जाकर प्र. वि., ए. व. - अरणि न सिया, मि. प. 54; -णिं द्वि. पाने योग्य, प्राप्तव्य, साक्षात्कार किए जाने योग्य - यं नपुं.,
For Private and Personal Use Only