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अपुब्ब अपुब्ब त्रि., ब. स. [अपूर्व]. एकदम नया, सर्वथा अभिनव, जो पहले स्थित नहीं था - सलाकग्गं च पासाद, अपुब्बं येव कारयि, चू. वं. 49.32; महाधातुकथायं अपुब्बं नत्थि अप्पमत्तिकाव तन्ति अवसे सा, ध. स. अट्ठ. 53; एवमत्थन्तिआदीसुपि अपुब् नत्थि अनन्तरसुत्ते वुत्तनयेनेव वेदितब्बं उदा. अट्ठ. 352; - पदवण्णना स्त्री., तत्पु. स. [अपूर्वपदवर्णन], पूर्व में अप्राप्त या अव्याख्यात पदों की व्याख्या - अयं ताव चतूसु अभिभायतनेसु अपुब्बपदवण्णना, ध. स. अट्ठ. 233; अयमेत्थ अपुब्बपदवण्णना, ध. स. अट्ठ. 236; अभिसम्बुद्धोति वदामीति एत्थ अपुब्बपदवण्णनं, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).51; तेस दानि करिस्सामि, अनुपुब्बपदवण्णन, पारा. अट्ठ. 2.198; - ब्बानुत्तानपदवण्णना स्त्री., तत्पु. स., पूर्व में अव्याख्यात अस्पष्ट पदों का वर्णन या व्याख्या - अपुब्बानुत्तानपदवण्णनामत्तमेव हि इतो परं करिस्साम, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).205; - ब्यपुम त्रि., पुम का निषे०, पुलिङ्ग से भिन्न लिङ्ग वाला, स्त्रीलिङ्ग अथवा नपुं. लिङ्ग वाला - अनुक्कमो परियायो अनुपुब्ब्यपुमे कमो, अभि. प. 429. अपुरक्खत त्रि., पुर + vकर के भू. क. कृ. का निषे. [अपुरस्कृत], शा. अ. आगे या सामने नहीं रखा गया, ला. अ. 1. वह, जिस पर विशेष ध्यान न दिया गया हो, उपेक्षित, तृष्णा अथवा मिथ्या दृष्टि से सर्वथा अप्रभावित - तं तस्स अपुरक्खतं, तस्मा वादेसु नेजति, सु. नि. 865; न तण्हाय वा न दिहिया वा परिवारितो चरतीति तं तस्स अपरक्खतं, महानि. 182; तं रागादिवज्जं तस्स अरहतो अपुरक्खतं, महानि. अट्ठ. 281; ला. अ. 2. अप्रभावित, अनभिभूत, तटस्थ - तस्मा विनेय्य सारम्भ, झायेय्य अपुरक्खतो ति, थेरगा. 37; कप्पाकप्पेस कुसलो, चरेय्य अपुरक्खतो ति, थेरगा. 251. अपुराण त्रि., पुराण का निषे. [अपुराण], वह, जो पुराना न हो, नया, अभिनव; - णं नपुं.. - अपोराणं वत भो राजा, सब्बभुम्मो दिसम्पति, जा. अट्ठ. 6.52; - वण्णी त्रि., वृद्ध व्यक्ति जैसा स्वरूप न रखने वाला, तरुण या नवयुवक सा दिखने वाला - अमस्सुजातो अपुराणवण्णी, आधाररूपञ्च पनरस कण्ठे, जा. अट्ठ. 5.192. अपुरे अ., पुरे निपा. का निषे.. नहीं सामने, नहीं आगे, नहीं पूर्वकाल में, नहीं पहले - अपुब्बं अचरिमन्ति अपुरे अपच्छा एकतो नुप्पज्जन्ति, दी. नि. अट्ठ. 3.73; अपुब्बं अचरिमन्ति अपुरे अपच्छा एकक्खणेयेव, अ. नि. अट्ट, 3.151.
अपूप/पूर्व अपुरेक्खरान पुरे + कर के आत्मने, वर्त. कृ., पुरेक्खरान
का निषे. [अपुरस्कुर्वत], शा. अ. सामने या आगे न करता हुआ, विशेष ध्यान न देता हुआ, विशेष महत्व न देता हुआ, ला. अ. उपेक्षा कर रहा, अप्रभावित हो रहा - कामेहि रित्तो अपुरेक्खरानो, कथं न विग्गरह जनेन कयिरा, खु. नि. 850; अपुरेक्खरानोति आयति अत्तभावं अनभिनिब्बत्तेन्तो, सु. नि. अट्ठ. 2.238; एवं खो, गहपति, अपुरेक्खरानो होति, महानि. 146; अपुरेक्खरानोति वट्ट पुरतो अकुरुमानो, महानि. अट्ठ. 248. अपूजनीय त्रि., पूज के सं. कृ., पूजनीय का निषे. [अपूजनीय], पूजा अथवा सम्मान-सत्कार न पाने योग्य, उपेक्षा करने योग्य, स्वीकार न करने योग्य, ग्रहण न करने योग्य - तस्मा तादिसी सद्दरचना अपूजनीया, सद्द. 1.54; तत्थ अपूजन्ति अपूजनीयं, जा. अट्ठ. 3.71. अपूति त्रि., पूति का निषे. [अपूति], वह, जो दुर्गन्ध-युक्त अथवा सड़ा-गला न हो, सुदृढ, ठोस, पवित्र - पञ्च बीजजातानि अखण्डानि अपूतिकानि अवातातपहतानि सारादानि सुखसयितानि स. नि. 2(1).50; अपूतिकानीति उदकतेमनेन अप्पूतिकानि, स. नि. अट्ट. 2.241; - अण्डता स्त्री., अपूतिअण्ड का भाव., शा. अ. अण्डे की सड़ा-गला न रहने वाली दशा, ला. अ. सामान्य स्थिति, स्वस्थ उद्भव, स्वस्थता - अपुच्चण्डतायाति अपूतिअण्डताय, म. नि. अट्ठ. (उप.प.) 3.23; - क त्रि., अपूति से व्यु. [अपूतिक], स्वच्छ, पवित्र, दुराचार से मुक्त, दुर्गन्ध एवं सड़न-गलन से रहित - होति बलवं बन्धनं, दळ्हं बन्धन, थिर बन्धनं. अपूतिकं बन्धन, थूलो, कलिङ्गरो, म. नि. 2.121; गम्भीररूपो ते वणो सलोहितो, अपूतिको वणगन्धो महा च, अपूतिकोति पूतिमंसरहितो, जा. अट्ठ. 5.189; - कायकम्मन्त त्रि.. ब. स., विशुद्ध या पवित्र कायकर्म करने वाला - तस्स अपूतिकायकम्मन्तस्स अपूतिवचीकम्मन्त स्स अपुतिमनोकम्मन्तरस भद्दकं मरणं होति. .... अ. नि. 1(1).296. अपूप/पूर्व पु.. [अपूप/पूप], पुआ, पिट्ठा - अथो सत्तु च गन्धो च पूपा पुपा तु पिट्ठको, अभि. प. 463; मंसोदनं. सप्पिपायासं भुञ्ज, खादस्सु च त्वं मधुमासपूवेजा. अठ्ठ. 5.19; - खादन नपुं.. तत्पु. स. [अपूपखादन], पुए का खाना, पुए का भोजन करना - आपूपिको ति एत्थ अपूपसद्देन अपूपखादनं विय ..., सारत्थ. टी. 1.71; - जाति स्त्री., तत्पु. स., एक प्रकार का पुआ, पुए का एक प्रभेद;-तीहि
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