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अपेति
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अप्प
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द्वारा नहीं बंधा हुआ - अवावटाति अपेतावरणा अपरिग्गहा,
जा. अट्ठ. 5.202. अपेति अप + Vइ का वर्त, प्र. पु., ए. व. [अपेति], शा. अ. दूर चला जाता है या भाग जाता है, ला. अ. हट जाता है, उचट जाता है, अदृश्य हो जाता है, विनष्ट हो जाता है, विदा ले लेता है - उपेति समुपेति वेति अपेति अवेति अन्वेति समेति अभिसमेति, सद्द. 2.315; सा तेन अट्टीयमाना अपेति, जा. अट्ट, 1.281; यस्मिं पन पुग्गले मनो न निविसति अपेति, सो सन्तिके वसन्तोपि दूरेयेव, जा. अट्ठ. 4.1943: --- न्ति ब. व. - सद्धा च पीति च मनो सति च, नापेन्ति मे गोतमसासनम्हा, सु. नि. 1149; - हि अनु. म. पु., ए. व. - अपेहीति अपयाहि, स. नि. अट्ठ. 1.164; अपेहि गच्छ त्वमेवेको, किमञमनुसाससी ति, स. नि. 1(1).145; अपेहि त्वं, उपक, विनस्स, मा तं अद्दसन्ति , अ. नि. 1(2).210; - यामि उ. पु., ए. व. [अपयानि], - हन्द दानि अपायामि, जा. अट्ठ. 7.28; तत्थ अपायामीति अपगच्छामि, पलायामीति अत्थो, तदे.. अपेत्तेय्य त्रि., पेत्तेय्य का निषे. [अपैतृक], पिता का हित न करने वाला, पिता के प्रति सम्मानभाव न रखने वाला - य्यो पु.. प्र. वि., ए. व. - अयं, देव, पुरिसो अमत्तेय्यो अपेत्तेय्यो असामओ अब्रह्मओ, अ. नि. 1(1).163; - य्या ब. व. - अथ खो एतेव बहुतरा सत्ता ये अपेत्तेय्या ... पे.. स. नि. 3(2).525; - ता स्त्री., अपेतेय्य का भाव., पिता के प्रति असम्मान का भाव या अहितकारिता - अमत्तेय्यता अपेत्तेय्यता असामञता अब्रह्मञ्जता न कुले जेट्ठापचायिता, दी. नि. 3.51; अपेत्तेय्यतादि एसेव नयो, दी. नि. अठ्ठ. 3.33. अपेय्य त्रि., पेय्य का निषे. [अपेय], शा. अ. नहीं पीने योग्य - तं परितं उदकं अमना लोणकपल्लेन लोणं अस्स अपेय्यन्ति, अ. नि. 1(1).283; सो अमुना लोणकपल्लेन लोणो न अस्स अपेय्यो ति, अ. नि. 1(1).283; तीरे समुद्दसुदकं स जन्तं, तं सागरो तेनापेय्यो ति, जा. अट्ठ. 7.51; ला. अ. पीकर खाली न कर सकने योग्य -- नास्स नायति पीतन्तो, अपेय्यो किर सागरोति, जा. अट्ट. 2.366. अपेसल त्रि., पेसल का निषे. [अपेशल], अकृपालु, अप्रिय स्वभाव वाला, अप्रसन्न चित्त, असामाजिक - एते अगुणा येस च सन्ति सब्बे तानीध खेत्तानि अपेसलानि, जा. अट्ठ. 4.343; अपेसलानीति एवरूपा पुग्गला आसीविसभरिता विय वम्मिका अप्पियसीला होन्ति, तदे..
अपेसित त्रि., पेसित का निषे. [अप्रेषित], काम करने हेतु प्रेरित नहीं किया गया - न मोहागतिं गच्छेय्य, न भयागति गच्छेय्य, पेसितापेसितञ्च जानेय्य, चूळव. 310-311. अपेसियमान त्रि., प + Vईस के कर्म. वा. के वर्त. कृ. का निषे. [अप्रेष्यमाण], काम पर लगने हेतु प्रेरित नहीं किया गया, - ना पु.. प्र. वि.. ब. व. - सामणेरा अपेसियमाना कम्मं न करोन्ति, चूळव. 310. अपेसुञ नपुं., पेसुञ का निषे. [अपैशुन्य], चुगली का अभाव, इधर की बात उधर न करना - सच्चवाक्यसमत्तङ्गो, अपेसुञसुसञतो, जा. अट्ठ. 7.142; अपेसुजेन सुद्ध सञ्जतो समुस्सितो, जा. अट्ठ. 7.143. अपेसुण त्रि., पेसुण का निषे., ब. स. [अपैशुन]. चुगली न करने वाला, इधर की बात उधर न कहने वाला - अक्कोधनो असचट्टो, सच्चो सण्हो अपेसुणो, जा. अट्ठ. 7.190. अपोरिसता स्त्री., अपोरिस का भाव. [अपौरुषता], पुरुष के प्रयास या पुरुष के पराक्रम से रहित होना, मानवीय प्रयास से अनिर्मित होना, अपने आप उत्पन्न होना - सो पन अपोरिसताय अकित्तिमो सयंजातो केनचि अघटितोयेव, वि. व. अट्ठ. 231. अपोसन नपुं., पोसन का निषे. [अपोषण], पालन या पोषण का अभाव - अञस्स अत्तभावस्स अपोसनेन अनञपोसीति दस्सेति, सु. नि. अट्ठ. 1.94; पाठा. अनिब्बत्तनेन; - ता स्त्री., भाव. [अपोषणता], किसी दूसरे का पोषण या पालन नहीं किया जाना - इमं अत्तभावं अञरस अत्तभावस्स वा पुत्तदारस्स वा अपोसनताय अनञ्जपोसी. स. नि. अट्ठ 1.182. अपोह पु., अप + vऊह से व्यु., क्रि. ना. [अपोह]. शा. अ.
दूर कर देना, हटा देना, ला. अ. अनावश्यक बातों को विचार की कोटि से बाहर निकाल देना, निषेधात्मक तार्किक स्थापना - ऊहनं आयूहनं व्यूहो अपोहो, सद्द. 2.457; सब्बं अनत्थं अपोहति, अपोहो. सद्द. 2.459. अपोहति अप + vऊह का वर्त., प्र. पु.. ए. व. [अपोहते], दूर कर देता है, तर्क-कोटि से बाहर कर देता है, खण्डन कर देता है - सब्बं अनत्थं अपोहति, अपोहो, सद्द. 2.459. अप्प् प्राप्ति या पाने के अर्थ की सूचक एक धातु [आप्ल]. - अप्प पापुणे, अपोति, आपो, एत्थ आपोति अप्पोति तं तं ठानं विसरतीति आपो, सद्द. 2.508. अप्प त्रि., प्रायः निषे. 'अ' का समानार्थक [अल्प]. कम, बहुत कम, थोड़ा सा, तनिक सा, छोटा, नहीं के बराबर -
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