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अप्पिय
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अप्पेक
- सतहि सो पियो होति, असतं होति अप्पियो, थेरगा. 994; - यं द्वि. वि., ए. व. - गन्था तेसं न विज्जन्ति, येसं नत्थि पियाप्पियं, ध. प. 211; - करण नपुं, अप्पिय + अकरण के योग से व्यु., तत्पु. स. [अप्रियाकरण], हानि नहीं करना, मन को प्रतिकूल रूप में अनुभव होने वाला काम न करना - णं नपुं. द्वि. वि., ए. व. - सब्द तेति विकुद्धभावञ्च इदानि अप्पियकरणञ्च उभयं ते इदं सब्बमेव पटिजानामि, जा. अट्ठ. 5.300; - मनापसद्द पु., अप्पिय + अमनाप + सद्द के योग से व्यु., कर्म. स. [अप्रियामनापशब्द], अप्रिय एवं मन को अच्छा न लगने वाला शब्द - इंद्वि. वि., ए. व. - भेरण्डकयेवाति अप्पियअमनापसद्दमेव, दी. नि. अट्ठ. 3.11; तेनाह अप्पियअमनापसद्दमेवाति, लीन. (दी.नि.टी.) 3.10; -- ता स्त्री., भाव. [अप्रियता], प्रतिकूलता, अप्रिय होने की दशा - ताय तृ. वि., ए. व. - तस्मिञ्च मे अप्पियताय अज्ज, पितरञ्च ते नत्थि कोचि विसेसो, जा. अट्ठ. 4.30; - तं द्वि. वि., ए. व. - न चापि मे अप्पियतं अवेदि, अञत्र कामा परिचारयन्ता, जा. अट्ठ. 4.32; - पसंसी त्रि., [अप्रियप्रशंसिन्]. अप्रिय जनों या पदार्थों की प्रशंसा करने वाला - पसंसी पु., प्र. वि., ए. व. - अप्पियपसंसी च होति, पियगरही च, अ. नि. 3(1).6; ततिये अप्पियपसंसीति अप्पियजनस्स पसंसको वण्णभाणी, अ. नि. अट्ठ. 3.195; - पुग्गल पु.. कर्म स. [अप्रियपुद्गल], अप्रिय व्यक्ति - ले सप्त. वि., ए. व. - अयहि मेत्ता अप्पियपुग्गले ... इमेसु चतूसु पठमं न भावेतब्बा, विसुद्धि. 1.284; -- भाव पु., कर्म. स. [अप्रियभाव], अप्रियता, प्रतिकूलता, प्रिय नहीं होना - वेन त. वि., ए.व. - तस्मिञ्च आसीविसे तव ... पितरि च अप्पियभावेन मह कोचि विसेसो नत्थि जा. अट्ठ. 4.30; - रूप त्रि., ब. स. [अप्रियरूप], मन को अच्छा न लगने वाले आकार या स्वरूप वाला- पे नपुं.. सप्त. वि., ए. व. - अप्पियरूपे रूपे न ब्यापज्जति, म. नि. 1.341; - वचन नपुं., कर्म. स. [अप्रियवचन], अच्छा न लगने वाला वचन - नेन तृ. वि., ए. व. - कतेन अदानेन वा अप्पियवचनेन वा अनत्थचरियाय वा असमानत्तताय वा... सुतपुब्बं मि. प. 159; - वादी त्रि., [अप्रियवादिन]. अप्रिय वचनों को बोलने वाला, गाली गलौज, डांट-फटकार या निन्दा करने वाला - मुखरो दुम्मुखो बद्धमुखो चाप्पियवादिनि, अभि. प. 735; - सम्पयोग पु., तत्पु. स. [अप्रियसम्प्रयोग], अप्रिय-जनों के साथ संयोग या मेल-मिलाप-गो पु., प्र. वि., ए. व. - अप्पियसम्पयोगो
नाम अमनापेहि सत्तसङ्खारेहि समोधानं, विसुद्धि. 2.133; - सील त्रि., ब. स. [अप्रियशील], मन को अच्छा न लगने वाले स्वभाव से युक्त - ला पु.. प्र. वि., ब. व. - अपेसलानीति एवरूपा पुग्गला आसीविसभरिता विय वम्मिका अप्पियसीला होन्ति, जा. अट्ठ. 4.343. अप्पिय त्रि., अप्प का सं. कृ. [अर्ग्य], प्रमुख तत्त्व के रूप में रखे जाने योग्य, प्रमुख वचन अथवा अभिधेय शब्द के रूप में रखा जाने योग्य - यं पु., वि. वि., ए. व. - कायोति वा सरीरन्ति वा, सरीरन्ति वा कायोति वा, कायं अप्पियं करित्वा एसेसे एकटे समे समभागे तज्जातेति, कथा. 31; तत्थ कायं अप्पियं करित्वाति कायं अप्पेतब्बं अल्लीयापेतब्ब एकीभावं उपनेतब्बं अविभजितब्बं कत्वा पृच्छामीति अत्थो, कथा. अट्ठ. 121. अप्पियायन्त त्रि., पिय के ना. धा. पियायति के वर्त. कृ. का निषे. [अप्रियायत्]. प्रेम न करता हुआ, अप्रिय रूप में या बुरे रूप में आचरण कर रहा - न्तो पु., प्र. वि., ए. व. - ... कल्याणकम्म दुस्सन्तो अप्पियायन्तो अट्टीयन्तो न करोति, जा. अट्ठ, 5.109. अप्पीति स्त्री., पीति का निषे., तत्पु. स. [अप्रीति], प्रीति का अभाव, द्वेष, वैर-भाव - यं सप्त. वि., ए. व. - दिसी अप्पीतियं. "धम्म देस्सति, सद्द. 2.452; दुस अप्पीतियं, दुस्सति पदुस्सति, दोसो ..., सद्द. 2.489. अप्पीभाव पु., [अल्पीभाव], क. छोटा हो जाना, कम हो जाना, कुटिल हो जाना - वे सप्त. वि., ए. व. - कुञ्च कोटिल्ल अप्पीभावेसु, सद्द. 2.335; ख. कम हो जाना, च्युत होना, बिलग होना - चुट अप्पीभावे, चोटति, सद्द. 2.353; ग. क्षमा करना - मस अप्पीभावे, खमायञ्च, मस्सति, सद्द. 2.489; घ. क्षीण हो जाना, घट जाना - लिस अप्पीभावे, लिस्सति, लेसो, सद्द. 2.489. अप्पीयति अप्प के कर्म. वा. का वर्तः, प्र. पु., ए. व. [अर्प्यते], बैठाया जाता है, स्थिर किया जाता है, दृढ़ता के साथ जोड़ दिया जाता है - तादिसम्हि आरम्मणं मनस्मिन अप्पीयति, विभ. अट्ठ, 8. अप्पेक त्रि., अपि + एक के योग से व्यु., कुछ एक-लोग - के पु., प्र. वि., ब. व. - अप्पेके सतमद्दक्ष, सहस्सं अथ सत्तरि ... अप्पेकेनन्तमद्दक्खं दिसा सब्बा फुटा अहं, दी. नि. 2.187; अप्पेके सतमद्दक्खुन्ति तेसु भिक्खूसु एकच्चे भिक्खू अमनुस्सानं सतं अद्दसंसु, दी. नि. अट्ठ. 2.249.
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