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अप्पटिवानी
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अप्पटिविरत
योग्य, नहीं रोके जा सकने योग्य - तञ्च अप्पटिवानीय, असेचनकमोजवं, थेरीगा. 55; अप. 2.277; तञ्च पन अप्पटिवानीयन्ति तञ्च पन धम्म अप्पटिवानीयं देसेति, स. नि. अट्ठ. 1.277. अप्पटिवानी' त्रि., अप्पटिवान से व्यु. [अप्रतिवारणिन]. अविचल चित्त वाला, उत्कण्ठारहित या सुदृढ़ प्रयास करने वाला - अप्पटिवानी सदाहं भिक्खवे पदहामि, अ. नि. 1(1).66. अप्पटिवानी स्त्री., अप्पटिवानिता के स्थान पर प्रयुक्त [बौ. सं. अप्रतिवाणिः]. अनुत्कण्ठता, दृढ़ता, वापस कदम न लौटाना, अविचलता - वायामो च उस्साहो च उस्सोलिहञ्च अप्पटिवानी च सति च सम्पजञञ्च करणीयं, अ. नि. 1(2).108; अ. नि. 2(2).25; जरामरण, भिक्खवे अजानता ... पे ... अप्पटिवानी करणीया ... पे .... स. नि. 1(2). 117; अप्पटिवानीति अनिवत्तनता, अ. नि. अट्ठ. 2.317. अप्पटिविजानन्तु त्रि., पटि + वि + आ के वर्त. कृ. का निषे. [अप्रतिविजानत्]. सुख और दुःख का संवेदन न
करने वाला - अप्पटिविजानन्तस्स सपिनो न होति. मि. प. 275. अप्पटिविज्झन नपुं.. पटि + विध के क्रि. ना. का निषे. [अप्रतिवेध], गहरी पैठ का अभाव, उचित ध्यान का अभाव, तीरण एवं प्रहाण परिज्ञा द्वारा धर्मों की यथार्थता के ज्ञान का अभाव - अप्पटिवेधाति अप्पटिविज्झनेन, दी. नि. अट्ठ. 2.119; स. नि. अट्ठ. 3.329; अप्पटिवेधाति तीरणप्पहानपरिञावसेन अप्पटिविज्झना, स. नि. अट्ठ. 2.84; - क त्रि., धर्मों की यथार्थ प्रकृति की गहराई तक जाकर प्रतिवेध-ज्ञान द्वारा उनके यथार्थ का ज्ञानदर्शन न करने वाला - चतुन्नं अरियसच्चानं अप्पटिविज्झनकमोहञ्च
अतीतो, ध. प. अट्ठ. 2.395; सु. नि. अट्ठ. 2.172. अप्पटिविज्झन्तु त्रि., पटि+विध के वर्त. कृ. का निषे.. प्रतिवेध-ज्ञान द्वारा सत्य का ज्ञानदर्शन नहीं करने वाला - उत्तरि अप्पटिविज्झन्तो ब्रह्मलोकूपगो होति. अ. नि. 3(2).308; पटि. म. 304; मि. प. 190. अप्पटिविज्झिय पटि + विध के पू. का. कृ. का निषे. [अप्रतिविध्य]. प्रतिवेध-ज्ञान द्वारा नहीं जान कर - बाला च मोहेन रसानुगिद्धा, अनागतं अप्पटिविज्झियत्थं, जा. अट्ठ.. 4.148; अप्पटिविज्झियत्थन्ति अप्पटिविज्झित्वा अत्थं पठममेव कत्तब्बं अकत्वाति अत्थो, जा. अट्ठ. 4.149. अप्पटिविदित त्रि., पटि + विद के भू. क. कृ. का निषे. [अप्रतिविदित], प्रतिवेध-ज्ञान द्वारा अथवा परिज्ञा द्वारा अज्ञात,
गहन आन्तरिक ज्ञान द्वारा नहीं जाना गया - येसं धम्मा अप्पटिविदिता, परवादे सु नीयरे, स. नि. 1(1).4; अप्पटिविदिताति आणेन अप्पटिविद्धा, स. नि. अट्ठ. 1.24. अप्पटिविद्ध त्रि., पटि + vविध के भू. क. कृ. का निषे. [अप्रतिविद्ध], शा. अ. गहराई तक नहीं बेधा गया, बहुत गहरे जाकर नहीं छेदा गया, स्वस्थ, घायल अवस्था को अप्राप्त - ... तव सेनं ब्रह्मदत्तेन दिन्नं अप्पटिविद्धं आनेस्सामि, जा. अट्ठ. 6.275; ला. अ. गहराई के साथ नहीं समझा गया, ठीक से नहीं जाना गया - अयम्पि खो ते, भद्दालि, समयो अप्पटिबिद्धो अहोसि. म. नि. 2.110; भद्दालीति, ... कारणं अत्थि, तम्पि ते न पटिविद्धं न सल्लक्खितन्ति दस्सेति, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.108; - चतुसच्च त्रि., ब. स. [अप्रतिविद्धचतुःसत्य], वह, जिसने चार सत्यों का गहराई के साथ ज्ञान प्राप्त नहीं किया है- अनभिसम्बुद्धस्साति अप्पटिविद्धचतुसच्चस्स, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).120. अप्पटिविभत्त त्रि, पटि + वि + भज के भू. क. कृ. का निषे. [अप्रतिविभक्त], विभक्त नहीं किया हुआ, विभाजित नहीं किया गया, समान भागों में अविभाजित, समान रूप से ग्राह्य - यं ... कुले देय्यधम्म सब्ब त अप्पटिविभत्तं भविस्सति ..., स. नि. 2(2).293; अप्पटिविभत्तन्ति इदं भिक्खूनं दस्साम, इदं अत्तना भुजिस्सामाति एवं अविभत्तं भिक्खूहि सद्धि साधारणमेव भविस्सतीति, स. नि. अट्ठ. 3.139; - भोग पु., कर्म. स. [अप्रतिविभक्तभोग]. विभाजित न करके वस्तुओं का समान रूप से उपभोग - ते किर अञमज अप्पटिविभत्तभोगा परमविस्सासिका अहेसं. जा. अट्ठ. 4.350; - भोगी त्रि., पटिविभत्तभोगी का निषे. [अप्रतिविभक्तभोगिन], विभाजित न किये गये भोजन, वस्त्र आदि का उपभोग करने वाला, सामान्य रूप में किसी भी भेदभाव के बिना का भोग करने वाला- तथारूपेहि लाभेहि अप्पटिविभत्तभोगी होति, सीलवन्तेहि सब्रह्मचारीहि साधारणभोगी, म. नि. 1.404; तदुभयम्पि अकत्वा यो अप्पटिविभत्तं भुञ्जति, अयं अप्पटिविभत्तभोगी नाम. म. नि. अट्ठ (म.प.) 1(2).2903; ये ते लाभा ... लाभेहि अप्पटिविभत्तभोगी भविस्सन्ति सीलवन्तेहि सब्रह्मचारीहि साधारणभोगी, दी. नि. 2.63. अप्पटिविरत त्रि., पटि + वि + (रम के भू. क. कृ. का निषे. [अप्रतिविरत], किसी काम से पूरी तरह नहीं हटा हुआ, वह, जो पूरी तरह से बिलग नहीं हुआ है - पाणातिपाता अप्पटिविरता अदिन्नादाना अप्पटिविरता, ... दुस्सीला
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